अजीब बात

अजीब बात

बंद कमरा,

घुप अँधेरा

बिखरे सामान

दर्दीले गीत...

सीधे उतरते

दिल के दिल में

दीवार पर पीठ टिका कर

कुछ पन्नो को पलटना

जब कुछ ना हो करने को

तो यह करना भी

कहीं से अच्छा लगता है


रात अपने अंधेरों और कुहासों की

बाहों में जा रही है

इधर मैं तुम्हारी गुदाज़ बाहें

तलाश रहा हूँ

गिरते-पड़ते...

किनारों के नमकीन बूँदें

कब गिर पड़ी

आहट नही मिली....

ठन्डे बदन से गर्म आंसू...

अब तलक जिंदा सा कुछ॥

...... अजीब बात है !

---सागर

1 टिप्पणियाँ:

Vinay said...

kahoon to behatreen, yah alfaaz kam hoga.