बोलो सुलोचना,





तीन बरिस की पाती
और जीवन भर की थाती
उन गानों का कब निकले मतलब
जो कलेजे चिपटा मुन्नू को गाती
बोलो सुलोचना
इत्ता मार क्योंकर खाती

     फिर जबकि सबकुछ पति को ही देना
     दिन भर कोयला फोड़ना, चूल्हा फूंकना, खांस-खांस कर भोजा भरना
     और बच्चों के लिए मर जाना
     जो तुमसे पूछे चूड़ी बारे में
     जो तुमसे पूछे साड़ी बारे में
     जो तुमसे पूछे मन्नत बारे में
     जो तुमसे पूछे मायके बारे में
     अपना दिल मचले तो करे ठुकुरसुहाती
     उज्जर आंखों वाली सुलोचना
      बोलो इत्ता मार क्योंकर खाती

भोली भाली पियारी सुलो
खसम को भूलो, जिद पर तुलो
कभी खुद को देखो, सबको भूलो
कानी उंगली जित्ता पाठ भी
याद नहीं तुम कर पाती
इत्ता मार क्योंकर खाती

    क्या सिलेबस तेरा बाप पढ़ाया
    कहां तूने जिनगी खपाया
    गोयठे की दीवार बन गई
    समय से पहले देह भई माटी
    बोलो सुलोचना
    इत्ता मार क्योंकर खाती

बारिश एक दुःख है


दो मकानों के बीच कोई हथकरघा रखा है
आसमान से उजले तागों के लच्छे गिरते हैं।
दीवार के कंधों पर बूंद गिरकर फूट जाती है

बारिश एक दुःख है
आलते का पौधा इसे नहीं समझता
घर में हुए अकाल मौत पर भी
बच्चे सा खिलखिलता रहता है
व्यस्क हो रहा तना
जीवन के दूसरे मायने भी समझता है
उम्रदराज कदम्ब से दर्द टपकता है।
लैम्पपोस्ट से अवसाद रिसता है।

सूखा ज़मीन जीवन सा है
जम रहा है चहबच्चों में पानी
दरकने लगता है कभी ठोस मानस पटल किसी के लिए
बारिश मनरंजन करती है।

अवरोधक के कारण हम जान पाते हैं बारिश का स्वर
वरना तो ये बेआवाज़ रोती है
इश्किया कविता में झंकार है बारिश
दर्द भरी कविता में अलंकार है

बारिश, बूंद-बूंद बरस जाने में बहुत पेशेवर है


मां जलाकर आया है बारिश
बेआबरू होकर बरसे ही जा रहा है।
मुंह खोले गुस्साए बरस रहा पानी
टपाटप गिर रहा, झमाझम नहीं
अपनी लय से बेखबर, बरसने की अदा से जुदा
आज बारिश, बूंद-बूंद बरस जाने में बहुत पेशेवर है

मिट्टी के बांध बह जाएंगे
नदी की धाराएं फूट पड़ेंगी
घुटने भर पानी, फसल कुछ इंतज़ार में खड़ी होगी
जैसे छठ अध्र्य में सुहागिनें मन्नत के लिए
उजाड़ कच्चे गांव फिर कहीं बसने की जगह देखेंगे
आसमान का टैंकर खाली हो जाएगा
कौवे निर्जन प्रदेश की घास में अपनी चोंच उल्टा उल्टा कर पोछेंगे
लेकिन नहीं पड़ेगा फर्क पत्थर की पीठ पर

नहीं पड़ेगा फर्क पत्थर की पीठ पर
रेशा रेशा फूट रहा है
छिन्न छिन्न उड़ रही पानी की बारूद
कोई मूर्तिकार छेनी लिए पत्थर तराशता हो जैसे
और हर कोंच पर बारीक बुरादे उड़ते हों

कहां जा रही बारिश अपना मायका छोड़कर
धरती बस एक अवरोधक लगता है
चुकंदर की तरह अपना ही हृदय दोनों हथेली में लिए सरे बाज़ार
खुद को निचोड़ रहा
मां जलाकर आया है बारिश, बेरहम।