नज़मा आत्मविरोध में विज्ञापन करती है

बिल्डिंगों के जंगल हैं
रस्सियों पर लटककर चमकीले शीशों की सफाई चलती रहती है
कारोबारी चौराहे के चौपड़ में 
नज़मा दिन भर बैंक के सामने बैठी रहती है

बैंक के आगे बोर्ड लगा है
'चलकर आइये, चलाकर ले जाइए'
दिन भर भीड़ लगी रहती है 
जन संपर्क अधिकारी ग्राहक से दुगना हँसता है
"हाँ सर्दियों की धूप  
चाय की चुस्की लेते हुए अच्छी लगती है"
बैंकों के अब सोफे लगवाए हैं. 
आवास, शिक्षा, इंशोरेंस , ऍफ़ डी सब है
बस आपकी कुव्वत क्या है

नज़मा आत्मविरोध में विज्ञापन करती है
"बैंक दे देता है इतना सब कुछ
मैं क्या दे सकती हूँ - सिर्फ बच्चा !"

"मेरी बस ग़लती इतनी 
ज्यादा उम्र नहीं है मेरी 
आंसू अब सूख चुके हैं
हजारों बलात्कारों से निकला बच्चा 
भूखा, गोद में पैर पटकता रहता है
दूध भी अब नहीं उतरता
अंतर्वस्त्र नहीं समीज के नीचे 
हवलदारों, रेड़ी वालो को सहूलियत इतनी
अँधेरे में जल्दी हो जाता है"

कभी कभी चली जाती है मंदिर में 
शिवलिंग से गलबांही कर पूछती है
या खुदा ! बलात्कार से आये बच्चे से मुहब्बत क्यूँ मुझे ?

श्रीमान ! नज़मा आत्मविरोध में विज्ञापन करती है
"नज़मा और शिवलिंग !
मैं धर्मनिरपेक्षता तो नहीं सिखा रही ?"

कभी कभी मन होता है कहने का उससे
नजमा, तुम भी इस कारोबारी चौक पर 
जिस्म का कारोबार कर लो तो अच्छा है.

लेकिन नज़मा तो आत्मविरोध में विज्ञापन करती है ना सर!

हमने प्यार को धोखे से चरस खिलाया था

जब भी ज़मीन भारी लगे
हफ्ते भर सर दर्द तारी रहे
गैलन गैलन आंसू रो 
और वो आसमान में घुलता लगे

कोई आहट चुपचाप गुज़रा करे
गौरैये की चहचाहट में उनके कंठ सूखे लगे
गुस्से में कविता लिखने बैठो तो 
सालता सा प्रेम गीत लिखा करो

सहेलियों संग कोफी पीते हुए
गायब हो चुके मुहासों के तार पकड़ 
बगल वाली आंटी 
तुम्हारी बढती उम्र के बायस सवाल पूछा करे 

सो कर उठते ही थकान महसूस हो
जीभ को बुखार हुआ करे
डेरी मिल्क देख मुझे तुम्हारी कमर की महक याद आये
तुम्हारे लिबास का कोई धागा उधडे तो
मेरे कुरते का बटन याद आया करे
गिरती शाम में जलाऊं अगरबत्ती तो 
अफीम रोशन हुआ करे 

नुक्कड़ पर खाओ गोलगप्पे तो 
गैस लाइट के पीछे मैं खुल्ले पैसे जोड़ता दिखाई दिया करूँ
तब पागल हो
जाम लगे चौराहे पर के हर ऑटो में चढ़ना
मारी मारी फिरना

हमने प्यार को धोखे से चरस खिलाया था
रोज़ पूल पे उबकाई करता दीखता है

मैंने आज छक कर शराब पी 
और बहुत तबियत से तुम्हारे हिस्से की भी नमाज़ पढ़ी 

परखना शीशे को

आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा
अगर मुहब्बत होगी तो वादी में बिखेरनी होगी
जुल्फों में भंवर बना कर जब हवा छूटती है. 
बालों का वो गुच्चा जो पुरसुकून इश्क का थक्का है
मिलानी होगी फिजा में

जो गिटार दफ़न कर कस कर चेन खिंच दिया हमने
कुछ तड़पती, कसमसाती, रह गयी बात 
साज की बारीक तारों पर चढ़ते चढ़ते फिसल कर रह बेबस रद्दो-अमल 
अगर सामन ना हुआ तो 
आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा

उजली उजली किरणें ना हुई तो
बोरे में भरने होंगे शाम होते ही फूटपाथ से सामान
बोझ जो यहीं से उठाये
ढो कर फिर से ले जाने होंगे

मौत हुई है या नहीं जब जांचने प्यार लौटेगा
तो पहला जामुन माफीनामे का डालेगा 
धैर्य जब काठ की कुर्सी पर बैठा बिजली के झटके खा खा कर जाता रहा होगा
तो बरसों बाद
छूटी हुई प्रेमिका पत्रकार बन ताज़ा समाचार तलाशेगी

निर्लज्ज होता है यथार्थ का वह समय
जब पहली प्रेमिका आपको कुछ नए नाम सुझाती है
(जैसे पसंदीदा काम ना मिलने पर लोग बहुत से बेगैरत काम करने लगते हैं)

ऊँचाई पर खुली खिड़की से देखती आँखें कहेगी
आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा

छायाप्रति


तुम 
तुम रेल की तरह गए 

मैं 
प्लेटफोर्म की तरह यकायक खाली हो गया

तुम साथ थे तो 
झटके में एकबारगी मेरे कंधे पर हाथ रख दिया था
मैंने भी ऐसा करने की सोची
विचार शिष्ट था 
मगर मैं शिष्टाचार में खोया रह गया
और तुम बढ़ गए...

सभ्य सोच और अशिष्ट व्यवहार की लड़ाई अधर में रह गयी. 

तुम्हारे साथ 
स्टेशन पर इस बड़ी वाली घडी से मुझे डर नहीं लगता
बल्कि मैं एक धड़कते शहर में दिन दर्ज करता 
खुद को एक इतिहासकार महसूस करता हूँ. 

तुम्हे जाता देख 
रेल का खिसकना, पैरों तले ज़मीन का धसकना था 
होशो-हवास में अपनी किडनी निकलते देखना था 
चार आँखों में पानी का पारा चढ़ना था.

तुम्हारे जाने के बाद 
देर तक सूने प्लेटफोर्म पर बैठा रहा
सारा शोर ख़त्म हो चला है
स्टेशन के सारे नल अब सूखे हैं
उलझे से पटरियों पर काले-काले मोबिल गिरे हैं.
बड़ी वाली घडी ठहर गयी है

एक बेकार सी समझदारी उग आई है हम दोनों के बीच
जिन दिनों मैं तुमसे लड़ता था;
बेहतर कवितायेँ लिखता था. 

कविता आना चाहती है



कविता आना चाहती है

कविता आना चाहती है...
एक विशाल भू भाग से उठ कर, सघन क्षेत्र में
यह विविध रंगों का मिश्रण हो एकाकार होना चाहती है.
सातो रंग मिलकर श्वेत होना चाहती है.

ऐसा नहीं है कि कविता लिखी नहीं जा रही इन दिनों 
कविता आ रही है 
जिसके आगमन का वेग तीव्र है
मगर इस थपेड़े में हम स्वयं गुमशुदा की तलाश में हैं

कविता इन दिनों 
कई शक्लों में आ रही है 
इनमें कविताओं ज्यादा कवियों का अपना बनाव श्रृंगार है.

कविता आ रही है 
मगर इसकी गति हमें कहीं पहुंचा नहीं रही 
इन दिनों कविता मेट्रो रूट की ट्रेन पकड़ने जैसी है
जहां हर स्टेशन यात्रा की शुरूआत है.
आप किसी भी पंक्ति से शुरू कर सकते हैं 
आप कहीं भी खत्म हो सकते हैं
(फिर चाहे मैं भी क्यों न होऊं)

कविताएं आ रही है इन दिनों भी, 
लेकिन शिल्प कुछ यूं है कि किसी महाकवि ने प्रणेता बन
महाकविता लिखी और 
अंतिम पंक्ति में  एक कोष्ठक डाल (....) उसे रिक्त छोड़ दिया
महज युवा कवियों से ही नहीं भाषा के जानकारों से उम्मीद की गई थी कि
कविता अपने शिल्पों में समृद्ध होगी।

महाशय,
नहीं मंतव्य था उसका और 
ना ही कहा था कहा भी था तो इस संदर्भ में नहीं कि 
रिक्त स्थानों की पूर्ति करो.

मगर आज कविता उसी रिक्त स्थान की पूर्ति करता ज्ञात होता है.

मित्रों 'अ' पर हाथ घुमाते घुमाते अब यह वर्ण मोटा हो चला है.

स्लेट पर क्या लिखा है जो मिटता नहीं

पुराने हो गए हैं स्लेट मेरे,
किनारे की लकड़ी अब टूटने लगी है.
अक्षर अब इस पर पूरी तरह नहीं मिटते 
अधमिटे आपस में झगडा करते हैं. 
किसी के भवें तनी हुई लगती,
तो कोई अधूरा शब्द पूरा प्रतीक नहीं बन पाता
कोई ज्यादा जगह लेता तो कोई दब्बू सा किसी कोने में बैठा संकोच करता है.  
फिर भी, बारहा इस पर कोई ना कोई शब्द लिख देता हूँ.

महसूस होता है कि सिकुड़ता जा रहा हूँ दिन - ब-दिन
माँ बड़े सुन्दर पत्ते बनाती थी इसपर 
पत्ते हरे होकर मुस्काने लगते थे,
और तब मेरी माँ इसमें डंठल लगा दिया करती
लकीरें गाढ़ा करते वक़्त माँ की चूड़ी बजने लगती थी.

कोई हाथ पकड़ कर कोई नया शब्द सिखा, बाल झिंझोर जाता 
और जब पहली बार जब 
उस छोटी फ़्रोक वाली लड़की का नाम लिखा तो
आँखों का मुस्काना देखा था.

स्लेट पर क्या लिखा है जो मिटता नहीं ?
छुप कर चोक आज भी खाता हूँ तो 
उस सांवली जाँघों वाली लड़की का नमकीन स्वाद आता है.

गणित सीखने में हिसाबों कि गड़बड़ी भी यही से शुरू हुई थी.
दोस्तों को प्लस वन (+1+1...)  कर कर के गिनता था.
आखिरकार 'भूलना',  भी इसी ने बताया.

स्लेट को बचाने में जिसने योग दिया 
काश ! वे उन पर लिखे गए सारे शब्दों की महत्ता भी बचा पाते.

स्लेट की पृष्ठभूमि में बसे अक्षर अक्सर हमारे चेहरे होते हैं.

जहीर भूल गए ? तुम्हें आना था !

मैं याद दिला दूँ तुझे
जहीर तुम्हें आना था, वक्त पर
तुम्हारी अम्मा अकेले पी एम सी एच जाती है.

अफ़सोस है कि व्यक्ति एक ही है पर
पर तुम्हारे अब्बा से ज्यादा अपने शौहर का एहतराम करती है.

जहीर तुम्हें आना था ना
हाल्ट पर बिकते बासी लाल साग ही लिए चले आते
जहीर तुम्हें कुदाल चलाना था
उससे दिल की गिरह बैठे मिट्टी के साथ हल्का होता है.

जहीर तुम्हें अप्रैल में कोयल को चिढाना था
तुम दोनों में अंत तक हूकने की बाज़ी लगनी थी
जैसा सिद्धिकी (बहन) के साथ करते हो.

हारून के होने का ख्याल बुनना था 
(अगर संभव होता तो बड़ा भाई, जिसे गरीबी के कारण पैदा नहीं होने दिया)
जब भी घर आओ तो
तराजू पर तौलना था
अपने पिछले फैसले, 
क्या खोया और क्या पाया जैसे सवालों के जवाब
किसी पेड़ पर जूनून में लिखे मुहब्बत के नाम
जो अब खरोंच से लगते हैं
जहीर तुम्हें यह कबूलना था
वक़्त रहते.

जहीर तुम्हें कविता लिखना था,
जीभ उल्टा कर नाक पर चढ़ा कर मगन होकर 
लट्टू के दरारों में कस कर डोरे कसने थे
बाजू फड़का कर खुरदुरी ज़मीन पर घुमाते-घुमाते हथेली पर लेना था.


तुम्हें आना था ना यार, वक्त रहते 
तुम आ जाओ ना वक्त गुज़ारने, वक़्त रहते....

लिखो


सिर्फ मंजिलें ही क्यों लिखो 
पड़ाव भी लिखो
लिखो कि यह इक आत्मविश्लेषण करने जैसा है. 

सिर्फ सुस्वादु भोजन मत लिखो
अपमान लिखो, अंतराल लिखो
हिचकियाँ लिखो

लिखो चढ़ाई के बारे में ही नहीं
लिखो सिर्फ पेड़ पर टंगे पत्तों पर नहीं 
सांस लेते मनुष्यों पर लिखो 
कार्बन छोड़ते चिमनियों पर लिखो

लिखो, कविता लिखो
लिखो जो मैं अपनी कविताओं में समेट नहीं पा रहा
लिखो, जो छूट गया, लिखो जिसपर कितनी बार लिखा जा चुका हो

बढ़ी हुई जनसँख्या चिंतनीय तो है
अब कोशिश हो कि हमारे पास इतने विचार भी हों
भैसों कि तरह हांके मत जाओ
और चरवाहे कि तरह किसी को हांकने मत दो

आलिंगन में कसमसाता स्नेह लिखो
विछोह में बौराता प्रलाप लिखो
प्रतीक्षा कि हलचल में अधैर्य का योग लिखो

जश्न लिखो, शोक भी लिखो
इमारत लिखो तो लिखो
मखमली पत्तों पर अनलिखा नाम भी लिखो

प्राप्ति लिखो, त्याग लिखो
बहाव से लेकर जलप्रपात तक लिखो
रेगिस्तान में तलवों से धुल उड़ाने से लेकर जलजमाव तक लिखो

अच्छा लिखो, बुरा लिखो 
कि 'बुरा लिखने से अच्छा लिखने' तक लिखो 
भोग लिखो, रोग लिखो, 
डू एंड डोंट्स लिखो
मौन, यातना, जेल, जन्म-मरण और पहाड़ के प़र लिखो 
वो लिखो जो हम नहीं जानते
वो लिखो जो जानते हैं मगर वैसे नहीं

लिखो
निरक्षर को साक्षर बनाने की दास्ताँ 
मजलूमों को हक़ दिलाने का सफ़र,
दो रोटी के बाद का अधिकार लिखो

लिखो 
समय को जागने के लिए
समय पर जागने ले लिए 
अपने होने के साक्ष्य के लिए
अपनी बेहतर नज़र के लिए 
फिर बेहतर होते दुनिया के लिए

लिखो 
यह अपने लिए लिख कर भी तुम्हारे लिए नहीं होगा.

अल्लाह रे !


डर
इक रोमांच बन कर आता तो बेहतर था,
अनिष्ट कुछ भी नहीं होगा यह जानते हुए कुछ सीखने को मिलता
चुनौती 
और लेने की हिम्मत बनती
कलेजा शेर सा होता 
कि दुश्मनों के गढ़ में जाकर उसके सीने पर दिन दहाड़े ईंट ठोक आता
जैसे मुझे अपने मरने से डर नहीं लगता 
ना ही मौत किनारे घूम कर आने से

लेकिन- लेकिन- लेकिन
 दाँव जब रिश्तों पर लग जाए.
नन्हे नीले फूल जब उगने से मना कर दे,
जब अन्टार्क्टिका में पेंग्विन की नस्ल पर खतरा मंडराने लगे
और जब एहसास हो जाए कि घड़ियाँ,
हर गिनती पर आखिरी बार घूम रही है 
और उसकी धमक डायल की सतह के बजाय हमारे ज़ख्मों को उधेड़ने लगे
तो ऐसा नहीं होना चाहिए था.

बहुत कुछ नहीं होना चाहिए था
उसमें हमारी जुदाई से लेकर 
मेरी असमय मृत्यु तक शामिल कि जा सकती है
अन्याय से लेकर यातना के आक्रांत तक उस घेरे में आते हैं.

डर का रूप धरे काल मगर
सूनामी कि तरह आता है
और हम, 
जब भी बोरे बिछाकर बाग़ में जब भी आशा भरी कविता लिखने बैठे हैं
कागजों पर निराशा कि स्याही रेंग जाती है.

रियाज़



दिल के दरारों के बीच 
लबालब प्यार भरे तुम टूट कर आई थी, 
पार्क में मुझे धक्का दे कर मेरे ऊपर लेट गयी थी.
कितनी तहों में था मैं 
ब्रह्माण्ड-पाताल-धरती और तुम्हारे-आकाश के बीच
अंडे के जर्दी सा सुरक्षित
'वोमेन ओन टॉप' का मतलब समझना बहुत देर से हुआ था
*****
तुम्हारे गुदगुदे हाथों की नर्माहट नहीं थी 
नन्हा सा दिल कद्दू के पेड़ से निकला नया जन्मा धागा भर था
जिसकी कोमलता जांचे में धोखा दे जाती है.
तुम सीढ़ी की तरह आ कर दिल से लग रही 
मैं लिपटता हुआ ऊपर चढ़ गया
छत पर मैंने बहुत सारे बच्चे दिए हैं
इस तरह से गुँथ गया मैं तुममें
घरवालों को अब छत से सीढ़ी भी हटानी होगी.
*****
बहुत खुबसूरत सी चाँद बन कर घर में भागती रहती हो भाभी
छोटे बच्चे (देवर) बादलों के तरह पीछे भागते हैं
आज अपना यह बंगालन रूप उतार लो
बच्चे मासूम ही भले लगते हैं.
बड़ा सुन्दर अधिकार है मेरा, 
थोडा सामंत मुझे भी बन लेने दो.
*****
थोडा अँधेरा भी अच्छा होता है 
कि तारे टिमटिमाते हुए तभी दीखते हैं 
किसने शाप दिया है उसको ?
जो ज़रा सी चमक में ओझल हो जाते हैं ?
ये कंधे हैं तुम्हारे दुखों के
ना दिन में सूरज पर जाना 
ना रात में चाँद को सोचो
तारे बताएँगे हमें, बुझते हुए जलना और जलते हुए बुझना
झिलमिलाना. 
- एक निर्विवाद सत्य.

पुराने जूतों को पता है (+ जोड़)



(दोस्तों में मैं देखता कि उनके शूज़ पैरों की तब सबसे ज्यादा रक्षा कर रहे थे जब वे सबसे ज्यादा सुकुमार थे)

पुराने जूतों को पता है मेरा इतिहास
कि वे एक बड़ी उम्र तक मेरी पहुंच से बाहर रहे
जब स्वतंत्रता दिवस की परेड में एक जोड़ी जूते आदर्श शर्त थे तो 
रातों-रात नहीं खरीदे गए जूते
मोची के एक टेढ़े लोहे के औजार पर कसे गए
उनकी बनावट मैंने गौर से देखी  
जूते के रूप में मैं तैयार हो रहा था। 

अत: जूते जब नसीब हुए तो वे मजबूरी के विकल्प थे
जूते एक बड़ी उम्र तक मजबूरी के ही विकल्प रहे 

पुराने जूते को मेरी विकलांगता का अंदाज़ा है 
वे जानते हैं कि मेरी टांगे किस किस कोण पर कितना झुकती है 
पुराने जूते जो बिना पॉलिश इतने सख्त थे कि
मुझे समझौता करना पड़ता था 
और मेरा बचपन इस समझौते की ज़द में गुज़रा  
...यह भविष्य की तैयारी थी।

पुराने जूते 
जिया सराय के गुमनाम बैचलर के कमरे की शोभा थे
जब दोस्त शराब पी कर ऊबकाई मारने बाथरूम भागते 
तो बेसब्री में पहने जाने वाले 
वफादार वेश्या थे

अब मेरे घर में पड़े हैं 
हर उम्र के पुराने जूते 

ऐसबेस्टस की दरार से आते रात भर बरसे पानी में 
भींग कर जूता फूल गया है 
वह ऐसे रूठा है मानो
घर की सबसे लाडली ने अपना मुंह फुलाकर बैठी हो 

लकड़ी के तख्ते पर औंधा पड़ा धूल खा रहा वो जूता
रेलवे की परीक्षा के लिए लिए गए थे
और सफर के दौरान ही एक ठग ने उसमें सोलह कांटी मार अड़तालीस रूपए वसूले थे
तब जूतों ने बताया था कि 
कुछ चीजे़ं स्तरहीन होती हैं 
धोखा भूख के बराबर का जिंदा, नंगा और भूखा वही स्तरहीन आदमी है।

पुराने जूतों को पता है कि मैंने उनसे उनके पहने जाने के वक्त में कभी प्यार नहीं किया
लेकिन जब ज़माने की नई चलन नाॅस्टेलज़िया की प्रथा अपनाऊंगा तो 
मैं उसे सबसे ज्यादा प्यारा लगूंगा

मेरे लिए जूता हमेशा एक कड़क शब्द रहा
जिसमें बड़ी ऊ की मात्रा उसे कर्कश बनाती रही 
उच्चारण मात्र से चेतावनी, धमकी, रूखाई, अनुशासन और दण्ड के द्योतक थे।
क्षमा करें श्रीमन् वे ‘शूज़‘ नहीं थे।

पुराने जूतों को पता है कि वे मेरी अपमान के प्रतीक हैं 
फिर भी मैं उसे संभाले रखने वाला हूं 
अपनी सफलता के दिनों में अपना पैमाना नापने के लिए
प्रतीकों की बात न की जाए तो 
पुराने जूतों को पता है हमारा निर्माण
जब तक ढ़ाई चाल चलने वाले घोड़े की तरह 
कोई ऐसा विज्ञापन नहीं आता कि 
'योर ओल्ड शूज इज़ अमेज़िंग, रिसायकल इट '

*****

(शीर्षक ऐसा इसलिए कि लीड खबर यहाँ है, तो न्यूज़ रूम कि तर्ज़ पर बाद में जो अपडेट/खबर जुटता जाए उसे (+add ) में दिखाते हैं. )

पद और गोपनीयता की शपथ

मुझे मिले हैं आदमी
नकाबपोश 
और कथित रूप से बावन हाथ के आँत वाले उलझे आदमी 

मुझे मिल रहे हैं आदमी 
घोषित औरतों जैसे 
जिनके बारे में मशहूर है कि बनाने वाले भी उसे नहीं जान सके 

मुझे मिले रहे हैं आदमी 
सड़क पर गोल थूक के रूप में 
जिसे देखकर अचानक चमकती हुई अठन्नी का बोध होता है 
और झुक कर छूने से उँगलियाँ लिजलिजी हो जाती है. 

मुझे मिल रहे हैं आदमी 
गमलों से लदे घर के बाद झूले की खवाहिश करता हुआ 
सत्तर हज़ार के काम के बदले सात सौ देता हुआ
मुझे मिल रहा है भरे पेट का भूखा आदमी
मौसम मुताबिक तापमान रखने वाला आदमी 
मख्खन लगी रोटियां परोसते हुए वो 
बदले में मेरा गोश्त लेने वाला है.

प्यार पीता आदमी, 
क्षणिक रूप से मूड के सिक्कों में ढला आदमी
हँसते हुए नए साल के केलेंडर देता हुआ 
शोषण की तारीख दर्ज करता आदमी

जिसने भविष्य की डायरी में लिख रखे हैं 
'मैं मजबूर था', और 'जो किया तुम बच्चों के लिए' जैसे जुमले
शरीर को सुख देने के आड़ में 
'करना पड़ता है' और 'क्या कर सकते थे' कि दुहाई देता आदमी.