सुनो ऐ चित्रकार!


चित्रकार !
क्या है तुम्हारा लक्ष्य !

यह कैसे पोस्टर बनाते हो!
विशद गहनता से उरेकते हो
केनवास पर
समाज से कट कर
२-४ बरस में
आरे-तिरछे
एक-आध संशय्मयी चित्र!

बेहद जटिल रचना रचते हो
नेफ़्रोन जैसे लगते है यह!!!

क्यों इतने अन्तराल तक
आशा में, कभी विषाद में डूबकर
उरेकते हो रंग!
क्या मिलेगा करके ऐसा सजीव चित्रण?

चित्रकार!
क्या इस शब्द तक ही है तुम्हारा संसार
औ' विस्तार?

अपनी इन धंसी हुई आखों से ऐसा क्या देखते हो

क्या त्रिकाल का डमरू!
या फिर
तांडव!!!

यह यहाँ-वहां के गहरे-हलके रंग
उजागर करते है
मानव जीवन के दोष
और क्या कहता है
काई जैसा रंग...??

घूमी हुई लोहे पर
क्यों लगा रखा है सूत का धागा
क्या है इनका रहस्य?


मैं बनना चाहता था
तुम्हारी तरह
जब न समझ पाया; कला की यह बारीकियाँ
तो आदमी बन गया
अब हमारे लिए -
यह सब 'एग्जिबिसन' है
वाह-वाह करके आगे बढ़ लेंगे

और तुम्हारी मौत पर न्यूज़ एजेंसियां दे देंगी
तीन पंग्तियों में शोक सन्देश !
कहो,
क्या इतने भर से ?
है तुम्हारा जीवन सार्थक ???

तलाश पर डांट


तारों से क्या शहद गिरते हैं ?
जो ताकते रहते हो उसे!

और उस बहुरूपिये चाँद में क्या है?
अय्यार है वो ज़ाहिल
तेरी प्रेमिका से कम नहीं है
भेद लेता रहता है, वो तेरा

फैशनबाज भी है स्साला!
सबकी आँखों को आइना बना
करता रहता है श्रंगार
देखो,
आज कैसे रग्बी बॉल बना बैठा है!

शायद...
तुम ज़मीं से ऊब गए हो
नाह
तुम्हारा कहीं ठिकाना नहीं होगा
आसमान में रहोगे तो
धरती के लिए तरसोगे

पेंडुलम


जब भी देखता हूँ आसमान में
एक पेंडुलम नज़र आता है
बड़ी डरावनी सी आवाज़ आती है उससे

लोगों ने क़यामत की कल्पना की
फिर उसपर लिक्खा
मुझे तो वो मंज़र दिखता रहता है
रोज़ होता रहता है उससे

...नित-नवीन साछात्कार!!!

कॉपीराइट


एक तमाचा मारा था तुमने
कनपटी पर
जहाँ की धमकी याद रहती है
भयावह रूप में

नाचता रहता है
तुंरत उसके बाद का दृश्य
हवा में कम्पन करते
उसकी गूंज सुनायी देती रहती है
तुम्हारे उँगलियों के पोरों के
निशान मेरे सारे इन्द्रियों पर
कान के सहारे छपे है

कान से धुआं बन निकला था
बागी सदा!
जो सीधे आकाश में
ठहर गयी
बिना विखण्डित हुए

इसका दूसरा संस्करण नहीं छपेगा
इस पर कॉपीराइट तुम्हारा है...

सफ्फाक दिल


पिछली बार याद नहीं कब रोया था
पर जब रोया था
इतना याद है
सफ्फाक बन गया था

अनुशासित पगडंडियों
पर परेड करती आँसू
दूर निकल गयी थी
जिस्म के राजपथ पर

जुटाए हुए सारे पाप,
न भोगे हुए सारे कुकर्म
और ज़माने से की गयी सियासतें
...सभी बह गये थे

इन दिनों के दरमियाँ
वही तलब जागी है

झुन्झुलाने लगा हूँ हर बात पर
कोयल की कूक पर चिढ़ने लगा हूँ

कदाचित्! सूखे का दिन गया

मेरा दर्द, ग़म, दुःख और ना जाने क्या-क्या


मैं उसे परे हटाता हूँ
वो थक-हार कर
मेरे ही कंधे पर सर रख देती है

भागते भीड़ में छान लेती है
मुझको
अंग-संग कभी नहीं लगी
जब भी लगी
जुडी आत्मा से

चाहे- अनचाहे
अपनाना ही पड़ा उसको
एक जबरदस्ती का विवाह हुआ था
फिर वो ठहरी जिद्दी दुल्हन

... निभाते क्या जिंदगी गुजरेगी ?

क्या नहीं है इसमें कुछ ?
तलाक जैसा कहीं कोई
गुंजाईश???

कुछ तस्वीर


चांदनी : आकर लेता हुआ जैसे
शंख !

रेत : जैसे नदी के टूटे हुए
दो पंख!

सरहद पर इमली के पेड़ की छाया!
देर रात तक, कोई नहीं

........................ आया !!!

बुद्धिजीवियों का दर्द


अपना ग़म इस कदर हावी हो गया ,
मुर्दे पर एक शाकाहारी सांप साँस ले रहा हो जैसे
हर घटना बेमानी हो गयी
किसी से कोई लेना-देना नहीं

खोलो कोई किताब तो
केवल लफ्जों का पुलिंदा बंधा हो
पैराग्राफ्स के दरमियाँ शब्दों का थक्का रखा हो

ये वही दौर है जिंदगी का
जब क्रांति बीते दिनों की बात हो गयी
खून ने उबलना बंद कर दिया
जोश ठंडा पड़ गया
और जवानी
कबड्डी के खेल में मात खा कर
फिर जिंदा होने की आस में
विरोधियों के पले बैठी है.

विवेक इस कदर हावी हो गया कि
जिंदगी प्रौढ़ हो गयी
और बुद्धिजीवी बुलाकर
हमारे अहम् की खुश कर दिया गया;
हाथ-पाँव बाँध दिए गए

हम सब प्रोफेशनल हो गए
चलते-फिरते विकलांग हो गए

जान, जानेमन, प्यारी, प्रिये!


उम्र कुछ ऐसे ही बीती
जैसे उफ़क पर नुमाया होता है
पनियाला अंडाकार सा
शून्य
जिसकी हिलती-डुलती परछाई में
तुम्हारी सूरत दिखाई दे जाती है

कई मलालों में एक
छोटा सा दुःख यह भी है कि
तुम्हें तुम्हारे असली नाम से तो दूर
शोख उपनामों से भी न पुकार सका

जान, जानेमन, प्यारी, प्रिये!!!
यह नाम भी अब दुनियादार हो गए...

इनका प्रयोग अब
दफ्तर के लोगों को समझाने में करता हूँ.

भौतिकी का सच...


आसमान में चमकते थे
दो तारे एक साथ
एक मुखर था; दूसरा मद्धम
नियमित समय पर उग आते दोनों
विपरीत आवेश वाले थे
मद्धम वाला सितारा अब टिमटिमाने लगा था

... परस्पर प्रेम उपज आया

वक़्त बदला,
अत्यधिक निकटता से आने लगा
दोनों में सामान आवेश

नाभिक में विकर्षण होने लगा...

आजकल दोनों ध्रुवों पर उगते है
अब
आसमान का संतुलन बना रहता है!!!

विद्वान इसे आजकल फिजिक्श का पाठ्यक्रम बताते हैं...

अंतर्नाद


गर मुझसे होना है कुछ बेहतर
तो अब हो जाये
भरम में यूँ ही ना जिंदगी गुज़र जाये
अब आर या पार की लडाई खेलो

आदमीवश कुछ बुराइयाँ हैं मुझमें
चोरी की, फरेब किया, धोखा भी दिया

फिर ऐसा कौन सा अपराध था
जो था गैर-आदमियतन...

जिससे बदन में थरथराहट रहती है
जिगर सहमता रहता है
पांव कांपते रहते है
डर लगा रहता है
साँस चलती रहती है
और
दिल धड़कता रहता है

अगर यह हैं तुम्हारे
मुझमें होने के लक्षण
तो कहाँ तो तुम ?
बांकी बचे हुए !

उस कुफ्र को तोड़ो खुदा
बाहर निकलो-
बाहर निकलो...

वक़्त पर भारी लम्हा


कहीं कोई टेपरिकॉर्डर नहीं बज रहा,
न ही हमारे लब खुले हैं
शायद ग़लतफहमी ही हो कि
कोई स्वरलहरी या जलतरंग गूँज रही है कहीं

तुम लचीले तने की तरह
मेरे पास आती हो
पाँव में थरथराहट... है,
दिल में रजामंदी
एक अद्भुत मिश्रण है
हाँ और ना का कॉकटेल है...

हम दोनों करीब हैं
तुम्हारे पैर, मेरे पैरों पर हैं
तुम्हारी जाविदां आँखें बंद हैं
पलकें पुरसुकून हैं
मेरे आगोश में...

यह लम्हा था
वक़्त का टुकड़ा...

अभी आधी बोतल शराब
को देखते हुए, सोचता हूँ;
वो कॉकटेल भरा लम्हा;

वक़्त पर भारी है.

खुदा या!


उमस के इसी मौसम में
जब जज़्बात के बादल;
बगावत कर घनेरे हो जाते हैं
फिर भी बरस नहीं पाते हैं...

ऐसे में कभी तुम तक
पहुँच जाते थे;
कच्ची पेन्सिल से लिख्खे
मंद सांसें लेते ख़त...

हर्फ़ भारी होकर तब
मेरा चेहरा उगाया करता था;
और मेरे हाल से
तुम्हारे दिल पर जमा मेघ भी
घुमड़ कर
तर कर जाता था,
तुम्हारा दामन

यही ख़त जलावन बनाकर उड़ेलता जाता मैं
और तुम्हारी अंगीठी सुलगने लगती;
दुनिया चैन से सोती
हमें मिल जाती,
कई रातों की खुराक...

तब ये आग भी चुपचाप जलता था

आज... वो
गोपनीयता भंग हो चुकी है पर
शुक्र है;

...'ब्लॉग' पर अब मेरा
मायूस चेहरा नहीं उभरता होगा...

माँ...


अलग-अलग दिशाओं में
छह लगभग सीधी लकीरों पर;
चाँद उगकर रोशनी करता है जब
तब उगता है
नाम तुम्हारा !

यह छः लकीरें नही संबल है
और यह चाँद इसे खूबसूरत बना रहा है...

परिचय का मोहताज़ नहीं,
ना ही
तालमेल बिठाने की रस्साकशी...

अनपढ़ रहकर
मुझको सिर्फ़
इतना ज्ञान दिया कि
तुम वस्तुनिष्ठ हो, सर्वनिष्ठ भी

मुझे नही लगता
तुम्हारे
शिराओं से रक्त गुज़रता है ?


...तेईस साल से
मैं हिज़्ज़े सुधार रहा हूँ;
तुम मायने समझा रही हो...

अब तलक...
''माँ...'', मैं तुमसे प्यार नहीं करता''


--- 'सागर'

'प्रसव वेदना'


...उसके गर्भवती होने का कोई वक़्त नहीं होता

यूँ ही ...
राह चलते,
देखते-सुनते,
चिंतन-मनन करते
अचानक वो हो जाता है 'उम्मीद से'

दृश्य, कल्पनाएं...
घटनाएँ,
तकलीफें, आशाएँ
बहुत अंदर तक पैठ जाती हैं उसके
यही करते है उसके साथ संभोग

गुत्थम-गुत्थी में छूट जाते हैं
उसके पसीने
और 'चट से' हो जाता है वह गर्भवती

दर्द किलकरियाँ मारने लगता है
उठने लगती है हृदय में उसके
'प्रसव वेदना'


बेकली और बेबसी में वह
उठा लेता है कलम

और रच डालता है कलाम


हर कवि होता है एक औरत
और वेदना से ही होता है जन्म
'कविता' रूपी शिशु का...

रश्क

देर रात कांच के ग्लास में
शराब उड़ेलते हुए
जब मेरे दोस्त
खोलते है तुम्हारे नाम की
लाटरी
तो दिन भर का हारा
यह 'सख्त जान'
रेशम के गिरह की मानिंद खुलने लगता है

एक लहर उठाता है
तुम्हारा नाम
रूह में मेरे...

इनकार की
गुंजाईश देख
वो डालते है बर्फ शराब में

वो जानते हैं की तुम्हारा नाम
घुल रहा होगा अब मेरे जेहन में

निगाहें तेज़ करके देखते है
शिकने मेरे पेशानी की
और दर्ज करते जाते हैं
मेरी हरेक हरकत...

कहीं से उनको यह खबर है कि
मैं जाम से नहीं तुम्हारे नाम से टूट रहा हूँ

पहले हमारे इश्क से रश्क था उनको
अब इस एहसास ने वो जगह ले ली है

हम्म...!!!


तौबा!
वो इश्क था
या
फुटबॉल का मैदान!

पेशेवर खिलाडी की तरह
खेली तुम
सारे दाँव-पेंच आजमाए
और छका-छका कर
मुझे थका दिया

फिर
चारों खाने चित्त होकर
बेबसी से मैं देखता रह गया
और तुमने बेरहमी से
गोल कर डाला

अब हम
'हैती' के नौसिखिये खिलाड़ी की तरह
अवाक् होकर सोच रहे हैं :

'अभी हममें बहुत सुधार की ज़रूरत है'



('हैती' फुटबाल खेलने वाला दुनिया का १२० वां देश है... यानि सबसे अंतिम'. यह हमारे स्कूली दिनों का सामान्य ज्ञान था)

पाज़ी नज़्में


-१-

क्यों कहती हो कि
मुझे पसंद है लाल रंग
बिलकुल खून जैसा!

... जबकि
मेरे रुमाल पर तो
लहू के वो धब्बे ... आज भी
हरे के हरे हैं 'एलियन'!!

- २-

तुम्हारी गर्दन पर छोड़ रखी है मैने
कुछ गर्म साँसे

...उनमें तुम भी हो और तुम्हारी ज़ुस्तज़ू भी,

अपने ज़ुल्फ़ो की हवा से
उस आग को ज़िंदा रखना

-३-

देर रात बोझिल क़दमों से जब
चढ़ता हूँ फ्लैट की सीढियाँ
जंगले से आती चाँद की मद्धम रौशनी
सन्नाटे का एहसास कराती है

बालकनी में अक्सर
अपने लैम्पपोस्ट की लाइट से
काफी देर तक मुझको
पढ़ा करता है चाँद

घंटे-डेढ़ घंटे बाद
वो 'घटा हुआ सा' नज़र आता है

...खुदा जाने!,
उसमें कुशादगी कब आएगी