वक़्त पर भारी लम्हा


कहीं कोई टेपरिकॉर्डर नहीं बज रहा,
न ही हमारे लब खुले हैं
शायद ग़लतफहमी ही हो कि
कोई स्वरलहरी या जलतरंग गूँज रही है कहीं

तुम लचीले तने की तरह
मेरे पास आती हो
पाँव में थरथराहट... है,
दिल में रजामंदी
एक अद्भुत मिश्रण है
हाँ और ना का कॉकटेल है...

हम दोनों करीब हैं
तुम्हारे पैर, मेरे पैरों पर हैं
तुम्हारी जाविदां आँखें बंद हैं
पलकें पुरसुकून हैं
मेरे आगोश में...

यह लम्हा था
वक़्त का टुकड़ा...

अभी आधी बोतल शराब
को देखते हुए, सोचता हूँ;
वो कॉकटेल भरा लम्हा;

वक़्त पर भारी है.

3 टिप्पणियाँ:

डॉ .अनुराग said...

हाँ और ना का कॉकटेल है...ओर वो लम्हा.....क्या बात कह गए....

एक दम खालिस मस्त पोस्ट.....

anil said...

बहुत बढ़िया लगे रहो ...........

ताहम... said...

अच्छी कोशिश है..इससे और अच्छा लिख सकते हो..जो कहना चाह रहे हो वह बिम्ब होता है और वह कविता में फटकते रहना ज़रूरी है,,मुझे इस कविता में लगा है ऐसा...लिखते रहिये..

Nishant kaushik