नज़मा आत्मविरोध में विज्ञापन करती है

बिल्डिंगों के जंगल हैं
रस्सियों पर लटककर चमकीले शीशों की सफाई चलती रहती है
कारोबारी चौराहे के चौपड़ में 
नज़मा दिन भर बैंक के सामने बैठी रहती है

बैंक के आगे बोर्ड लगा है
'चलकर आइये, चलाकर ले जाइए'
दिन भर भीड़ लगी रहती है 
जन संपर्क अधिकारी ग्राहक से दुगना हँसता है
"हाँ सर्दियों की धूप  
चाय की चुस्की लेते हुए अच्छी लगती है"
बैंकों के अब सोफे लगवाए हैं. 
आवास, शिक्षा, इंशोरेंस , ऍफ़ डी सब है
बस आपकी कुव्वत क्या है

नज़मा आत्मविरोध में विज्ञापन करती है
"बैंक दे देता है इतना सब कुछ
मैं क्या दे सकती हूँ - सिर्फ बच्चा !"

"मेरी बस ग़लती इतनी 
ज्यादा उम्र नहीं है मेरी 
आंसू अब सूख चुके हैं
हजारों बलात्कारों से निकला बच्चा 
भूखा, गोद में पैर पटकता रहता है
दूध भी अब नहीं उतरता
अंतर्वस्त्र नहीं समीज के नीचे 
हवलदारों, रेड़ी वालो को सहूलियत इतनी
अँधेरे में जल्दी हो जाता है"

कभी कभी चली जाती है मंदिर में 
शिवलिंग से गलबांही कर पूछती है
या खुदा ! बलात्कार से आये बच्चे से मुहब्बत क्यूँ मुझे ?

श्रीमान ! नज़मा आत्मविरोध में विज्ञापन करती है
"नज़मा और शिवलिंग !
मैं धर्मनिरपेक्षता तो नहीं सिखा रही ?"

कभी कभी मन होता है कहने का उससे
नजमा, तुम भी इस कारोबारी चौक पर 
जिस्म का कारोबार कर लो तो अच्छा है.

लेकिन नज़मा तो आत्मविरोध में विज्ञापन करती है ना सर!