कवि कह गया है - 3


फफककर रो ही पड़ो अब इस बसंत में,
सबदे हुए कलेजे को ज़रा देर धूप लगा लो,
किसी कोंपल का खिलना देख लो,
या चुपचाप किसी पत्ते का दरख़्त से जुदा होना,
ख्याल ये रहे कि कोई आवाज़ न हो
किसी की नज़र न पड़े
एक फूल ही तोड़ लो सरसों का, इस मौसिम में

कारण जान लो कि क्यों
हर शाम आसमान के किनारे सोना पिघलता जाता है,
पल्लू का एक टुकड़ा दांत से दबा कर
भंसा कि ड्योढ़ी पर ही क्यों बैठी रहती है 'वो'
क्या स्वाद होता है उस पसीने का जो आंसुओं से मिल जाते हैं
अनुपात वहां कितना मायने रखता है ?

जिस वेग से बहती है नदी भादो में...
लबालब...
आंसू वैसे ही अब-डब रहता है न आखों में
बाँध दिल पर अगर नहीं होता है तो
क्यों साकार हो जाता है मंज़र

कुछ भी कर लो;
याद रखना पर कि
सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है...

कवि कह गया है -2

इस वक्त
हां ठीक इसी वक्त

जब तुम अस्पताल के सफेद बिस्तर पर पड़ी हो
औ बाहर की वादियों में छाया है असंतोष
आत्मसम्मान की हड्डी को छील कर फेंका जा रहा है
सरों को गिलोटिन पर चढ़ाया जा रहा है
औ तुम अकेली अनशन के बीच जिए-मरी जा रही हो

इसी वक्त,
तुम्हें प्रकृति के खुशगवार नज़ारों के बीच जवान होते
पढ़ना था सुमित्रानन्दन पन्त की कविताएं
कि कैसे 'कला को देखकर बूढ़ा चाँद'
कहता है - मैं तुम्हें नग्न देखना चाहता हूं भावों से

सुना है
तुम्हारी चाहत गांधी और मण्डेला को पढ़ने की है
तुम्हें इसकी जरूरत नहीं 'शर्मिला'

इन किताबों की दरकार
सत्ता पर काबिज उन सामन्तों को है जो
नीरो बन बंसी बजा रहे हैं
उन युवाओं को जो
तनाव ग्रसित हो डिस्कोथेक में थिरक रहे हैं
उस अधेड़ आदमी को जो ब्लू फिल्में देख रहा है
उस सम्मानित कवि को जो सामाजिक सरोकार छोड़
काल्पनिक प्रेम कहानियों पर रूमानी ज़िल्द चढ़ाकर
पाठकों को भरमा रहा है

गर ये भी नहीं तो
तुम्हारी धीमी आवाज़ को बुलन्द करने का है

(इरोम शर्मिला को पढने के बाद विचलित होकर)
{चित्र : तहलका/चिठ्ठाचर्चा से}

कवि कह गया है - 1

वो तमाम जगहें
जो नक्कारखाने के रूप में चिन्हित किए गए हैं
जहां कि
दीवारों पर बेरोज़गार युवक गालियां लिखकर
अपनी कुंठा मिटाता है
औ' उसे गीला करते वक्त लोग उसका तर्जुमा करते हैं

जहां गली के मुहाने पर मिलता है
सेर भर अश्लील साहित्य
जहां की आबादी
घरों से इस तरह निकलती है जैसे
चीटियों के सुरंग में किसी ने पानी झोंका हो

जहां,
उस बस्ती के बाशिंदे सर्कस में नौसिखिए सा
दो बांसों के बीच खीचीं गई रस्सियों पर
हवा में हाथ लहराए
बैलेंस बनाते हुए चलने की कोशिश कर रहा है।

अक्सर,
जिंदगी को हमने वहीं देखा है सांस लेते हुए
भारी सांसों को हंस कर कोयला ढ़ोते हुए

उम्र के इस मोड़ पर अनायास
वे सारे घोषित गुनाह मुझे प्रिय लगने लगे हैं

गर हम शिक्षिका से नहीं करते प्रेम
कैसे जानते गहनतम धरातल को
प्रेम का जटिल अध्याय
ठेके पर नहीं पीते शराब
तो रंग-बिरंगे दुखों के मेले से
कैसे होते रू-ब-रू?

नहीं पढ़ते सस्ते व अश्लील साहित्य
तो कैसे जानते उनमें छिपे रहस्य औ' गूढ़ विचार?
कैसे कर पाते व्याख्या समाज, संस्कृति, शिक्षा और आदमी से लेकर
इन्हीं की विकास यात्रा तक की?

कैसे बनता हमारा अपना नज़रिया?

मैं सही हूं या गलत
यह बहस का विषय हो सकता है

कदाचित्
यह भी संभव हो कि
हमारी लिख्खी कविताएं
अकादमी की पाठ्यक्रमों में शामिल न किए जाएं

किंतु,
तुम तो जानते हो न कवि;
कि कविताएं दूब जैसी होती है.
..कि कविताएं कहीं भी उग आती हैं