बालिग़ बयान

महान पच्चीस बरस जी लेने के बाद तबियत से बहुत कुछ कहा जा सकता है.

जैसे सहूलियत से कह सकता हूँ कि
देश, बारहों महीने कुशलता से गाया जाने वाला एक राग है
लोकतन्त्र, फटे हुए कालरों पर कि गई रफ्फू है और
राष्ट्र धुन महज़ रोमांचित होने का जरिया है.
वहीँ आम आदमी प्रत्येक योजनाओं का पंच लाइन है.

महसूसते हुए कह सकता हूँ कि
विरह, देह में मौजूद दिल की क्षणिक जरुरत है
जहां पहले ये शर्त बलवती है कि
ये तमाम सुविधाओं के बाद हो
जिसे वक्त-बेवक्त ओढ़ कर खुद को इंसान होने का ढाढस बंधाया जा सके

बेबाकी से कह सकता हूँ कि
सर्वे में कही गई कई बातें गलत हैं
जिन मेहनतकश लोगों के पूजने की शपथ दोहरायी गई है
दरअसल वे मासिक धर्म के पहले दिन के दर्द से गुज़र रहे हैं
अतएव बहिष्कृत हैं.

और हिकारत से कह सकता हूँ कि
कविता, ना अब मेरे लिए वाहवाही की वस्तु  है ना बदलाव के आसार
यह बौद्धिक क्षुधाओं कि पूर्ति मात्र बन कर रह गई है.