परखना शीशे को

आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा
अगर मुहब्बत होगी तो वादी में बिखेरनी होगी
जुल्फों में भंवर बना कर जब हवा छूटती है. 
बालों का वो गुच्चा जो पुरसुकून इश्क का थक्का है
मिलानी होगी फिजा में

जो गिटार दफ़न कर कस कर चेन खिंच दिया हमने
कुछ तड़पती, कसमसाती, रह गयी बात 
साज की बारीक तारों पर चढ़ते चढ़ते फिसल कर रह बेबस रद्दो-अमल 
अगर सामन ना हुआ तो 
आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा

उजली उजली किरणें ना हुई तो
बोरे में भरने होंगे शाम होते ही फूटपाथ से सामान
बोझ जो यहीं से उठाये
ढो कर फिर से ले जाने होंगे

मौत हुई है या नहीं जब जांचने प्यार लौटेगा
तो पहला जामुन माफीनामे का डालेगा 
धैर्य जब काठ की कुर्सी पर बैठा बिजली के झटके खा खा कर जाता रहा होगा
तो बरसों बाद
छूटी हुई प्रेमिका पत्रकार बन ताज़ा समाचार तलाशेगी

निर्लज्ज होता है यथार्थ का वह समय
जब पहली प्रेमिका आपको कुछ नए नाम सुझाती है
(जैसे पसंदीदा काम ना मिलने पर लोग बहुत से बेगैरत काम करने लगते हैं)

ऊँचाई पर खुली खिड़की से देखती आँखें कहेगी
आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा

छायाप्रति


तुम 
तुम रेल की तरह गए 

मैं 
प्लेटफोर्म की तरह यकायक खाली हो गया

तुम साथ थे तो 
झटके में एकबारगी मेरे कंधे पर हाथ रख दिया था
मैंने भी ऐसा करने की सोची
विचार शिष्ट था 
मगर मैं शिष्टाचार में खोया रह गया
और तुम बढ़ गए...

सभ्य सोच और अशिष्ट व्यवहार की लड़ाई अधर में रह गयी. 

तुम्हारे साथ 
स्टेशन पर इस बड़ी वाली घडी से मुझे डर नहीं लगता
बल्कि मैं एक धड़कते शहर में दिन दर्ज करता 
खुद को एक इतिहासकार महसूस करता हूँ. 

तुम्हे जाता देख 
रेल का खिसकना, पैरों तले ज़मीन का धसकना था 
होशो-हवास में अपनी किडनी निकलते देखना था 
चार आँखों में पानी का पारा चढ़ना था.

तुम्हारे जाने के बाद 
देर तक सूने प्लेटफोर्म पर बैठा रहा
सारा शोर ख़त्म हो चला है
स्टेशन के सारे नल अब सूखे हैं
उलझे से पटरियों पर काले-काले मोबिल गिरे हैं.
बड़ी वाली घडी ठहर गयी है

एक बेकार सी समझदारी उग आई है हम दोनों के बीच
जिन दिनों मैं तुमसे लड़ता था;
बेहतर कवितायेँ लिखता था.