तुम
तुम रेल की तरह गए मैं
प्लेटफोर्म की तरह यकायक खाली हो गया
तुम साथ थे तो
झटके में एकबारगी मेरे कंधे पर हाथ रख दिया था
मैंने भी ऐसा करने की सोची
विचार शिष्ट था
मगर मैं शिष्टाचार में खोया रह गया
और तुम बढ़ गए...
सभ्य सोच और अशिष्ट व्यवहार की लड़ाई अधर में रह गयी.
तुम्हारे साथ
स्टेशन पर इस बड़ी वाली घडी से मुझे डर नहीं लगता
बल्कि मैं एक धड़कते शहर में दिन दर्ज करता
खुद को एक इतिहासकार महसूस करता हूँ.
तुम्हे जाता देख
रेल का खिसकना, पैरों तले ज़मीन का धसकना था
होशो-हवास में अपनी किडनी निकलते देखना था
चार आँखों में पानी का पारा चढ़ना था.
तुम्हारे जाने के बाद
देर तक सूने प्लेटफोर्म पर बैठा रहा
सारा शोर ख़त्म हो चला है
स्टेशन के सारे नल अब सूखे हैं
उलझे से पटरियों पर काले-काले मोबिल गिरे हैं.
बड़ी वाली घडी ठहर गयी है
एक बेकार सी समझदारी उग आई है हम दोनों के बीच
जिन दिनों मैं तुमसे लड़ता था;
बेहतर कवितायेँ लिखता था.
20 टिप्पणियाँ:
तुम
तुम रेल की तरह गए
मैं
प्लेटफोर्म की तरह यकायक खाली हो गया
बहुत अच्छी समझदारी से रची गई कविता।
वाह वाह सागर भाई!!!!मजा आ गया....Refreshing....
लो सोचालय के बाहर भी आपसे मिल लिए ......
कि एक और किनारा भी है सागर का .....
शायद ही सोचायल पर आपको डस्टरब (कोई कंकर फैंका हो) किया हो...
पर आज इस बेकार सी समझदारी को छोड़ दिया.
बदिया सागर जी.
रेल का संदर्भ अधिक भौतिक लगता है।
...सभ्य सोच और अशिष्ट व्यवहार की लड़ाई अधर में रह गयी.
...जिन दिनों मैं तुमसे लड़ता था;
बेहतर कवितायेँ लिखता था.
waaah
वाह! क्या सफ़र है!
रेल के साथ आदमी और आदमी के साथ रेल।
अच्छा होता है कभी-कभी दोनों का ये तालमेल
तुम चले भी गए , और गए भी नहीं :)
ooh!!
मगध के विचार बहुत अनोखे होते हैं...
साग़र एक अच्छा लेखक है, वो मेरा अच्छा दोस्त भी है लेकिन बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है की उसने मेरी दो लाइनें चुराई हैं. (ये अलग बात है की ये लाइन मैंने उससे या किसी से तो क्या खुद से भी शेयर नहीं की. और इनके मिलने पर ही मुझे लगा की अरे यहीं तो हैं वो. :-P) ये लाइनें मुझे दे दे साग़र....
जिन दिनों मैं तुमसे लड़ता था;
बेहतर कवितायेँ लिखता था.
सुंदर....
भाई साहेब
क्या खूब लिखा है .. वाह
पूरी जिंदगी को कुछ शब्दों में पिरो दिया है ... और इन्ही शब्दों में प्रेम गूंजता हुआ ....
बधाई
आभार
विजय
कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
jin dino tumse ladta tha, acchi kavitaayen likhta tha...is pal me isse acha kuch nahi
aapka blog aj pahli baar padha,berang se sochalaya aur sochalay se yaha tak pahunch gai....shabd nahi hai mere pass apne college ke din yaad aa gae jab log kaha karte the intellectual ki shreni alag hoti hai tab samjh nahi aata tha kya alg hota hai in praniyon me aj apki rachnae padhkar ahsaas hua kya alg hota hai....kyu me aur mere jese kai blogger sirf talchati par vichran karte rahe jate hain....janti nahi ye khurak aap log kaha se pate hai par itna janti hu ki jaha se bhi pate honge wo strot bahut hi bhara poora sa hoga....
हाँ सागर जी हमारा परिवेश ही हमें ये सारी खुराक देता है शायद .पर इस बात में कोई दोमट नहीं की कुछ मष्तिस्क इन खुराकों को एसे रूप में बदल देते है जो दसरे मष्तिष्क के लिए खुराक का बन जाए...कभी समय मिले तो मेरी परवाज़ तक आइयेगा ये नहीं कहूँगी की आपका मार्गदर्शन चाहिए बस ये कहूँगी आप आएँगे तो अच्छा लगेगा....
www.meriparwaz.blogspot.com
एक बेकार सी समझदारी उग आई है हम दोनों के बीच
जिन दिनों मैं तुमसे लड़ता था;
बेहतर कवितायेँ लिखता था.
कितनी भली सी बात है...!
"एक बेकार सी समझदारी उग आई है हम दोनों के बीच
जिन दिनों मैं तुमसे लड़ता था;
बेहतर कवितायेँ लिखता था. "
बहुत अच्छा लगा
चलो न निकालते हैं कुछ पुराने झगड़े। आज बता भी दो उस कलमुंही का नाम जिससे झगड़ कर अच्छी कवितायें लिखते थे। कमसे कम उसे गंगा में धकिया देने का प्लानिंग तो कर पायेंगे ठीक से।
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इस कविता में बहुत कुछ मुझे बहुत पसंद है। ये बिल्कुल वैसा है जैसा तुम लिखा करते थे। दिल्ली का इतिहासकार गुम हुआ है रे...जिन्दा शहर की कोई खबर नहीं आयी बहुत दिन से।
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तो फिर, कब लिख रहे हो अगली कविता?
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