आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा
अगर मुहब्बत होगी तो वादी में बिखेरनी होगी
जुल्फों में भंवर बना कर जब हवा छूटती है.
बालों का वो गुच्चा जो पुरसुकून इश्क का थक्का है
मिलानी होगी फिजा में
जो गिटार दफ़न कर कस कर चेन खिंच दिया हमने
कुछ तड़पती, कसमसाती, रह गयी बात
साज की बारीक तारों पर चढ़ते चढ़ते फिसल कर रह बेबस रद्दो-अमल
अगर सामन ना हुआ तो
आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा
उजली उजली किरणें ना हुई तो
बोरे में भरने होंगे शाम होते ही फूटपाथ से सामान
बोझ जो यहीं से उठाये
ढो कर फिर से ले जाने होंगे
मौत हुई है या नहीं जब जांचने प्यार लौटेगा
तो पहला जामुन माफीनामे का डालेगा
धैर्य जब काठ की कुर्सी पर बैठा बिजली के झटके खा खा कर जाता रहा होगा
तो बरसों बाद
छूटी हुई प्रेमिका पत्रकार बन ताज़ा समाचार तलाशेगी
निर्लज्ज होता है यथार्थ का वह समय
जब पहली प्रेमिका आपको कुछ नए नाम सुझाती है
(जैसे पसंदीदा काम ना मिलने पर लोग बहुत से बेगैरत काम करने लगते हैं)
ऊँचाई पर खुली खिड़की से देखती आँखें कहेगी
आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा
13 टिप्पणियाँ:
मौत हुई है या नहीं जब जांचने प्यार लौटेगा
तो पहला जामुन माफीनामे का डालेगा
धैर्य जब काठ की कुर्सी पर बैठा बिजली के झटके खा खा कर जाता रहा होगा
तो बरसों बाद
छूटी हुई प्रेमिका पत्रकार बन ताज़ा समाचार तलाशेगी
ऐसे बिम्ब सूझते कैसे हैं रे कवि... सोच के किस "साग़र" में गोता लगा के निकालते हो ऐसे नायाब नगीने ???
कुछ अलग से विचार...थोड़ा भ्रम...लेकिन वही सुंदरता...मजा आ गया...
पुराना सागर मिल गया मुझे !
"छूटी हुई प्रेमिका पत्रकार बन ताज़ा समाचार तलाशेगी"
कभी कभी ये भी होता है के छूटी हुई प्रेमिका उतनी रास आती नहीं .....
@ डॉ. अनुराग,
बिलकुल सही. तुरुप का पत्ता मारा है आपने.
कहना यही था और फैज़ ने कहा है ना - मेरे महबूब मुझसे पहली सी वो मुहब्बत ना मांग
मजा आ गया पढ़कर...
waah...bas waah
निर्लज्ज होता है यथार्थ का वह समय
जब पहली प्रेमिका आपको कुछ नए नाम सुझाती है
(जैसे पसंदीदा काम ना मिलने पर लोग बहुत से बेगैरत काम करने लगते हैं)
ऊँचाई पर खुली खिड़की से देखती आँखें कहेगी
आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा
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(कहाँ हैं आजकल कुछ खबर तो दीजिए?)
कितना कुछ घटता है दिल में,
तभी कुछ नहीं घटता दिल में।
@आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा
और कोई जगह भी तो नहीं बची...... सुंदर अलफ़ाज़ ..
क्या कहूँ सागर जी …………जहां जाकर सोच खुदा हाफ़िज़ कहती है आपकी ले्खनी वहां से शुरु करती है तो नायाब मोती ही तो निकलेगा सागर मे से।
बहुत उलझी सी मगर तरोताजा कर देने वाली पोस्ट.....
उजली उजली किरणें ना हुई तो
बोरे में भरने होंगे शाम होते ही फूटपाथ से सामान
बोझ जो यहीं से उठाये
ढो कर फिर से ले जाने होंगे
बहुत खूब !
yahan like ka option kyon nahi, jab kehne ko kuch na bache or insaan nishabad ho jaye tab bhi like ka batan dabaya jata hai, kabhi kabhi...kuch bhi jo ek pal tha doosre pal nahi rehta...kuch bhi nahi
निर्लज्ज होता है यथार्थ का वह समय
जब पहली प्रेमिका आपको कुछ नए नाम सुझाती है
(जैसे पसंदीदा काम ना मिलने पर लोग बहुत से बेगैरत काम करने लगते हैं)
ऊँचाई पर खुली खिड़की से देखती आँखें कहेगी
आखिरकार हमें अपने दिल में ही सबकुछ समेटना होगा...
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