पनाह

पनाह

(१)

मैंने उनकी बड़ी प्रसंशा की,

सामने की, पीठ पीछे भी की

इतनी की के वो

जब अपनी लय में आती तो आत्ममुग्ध हो कहती---

'सर पर बिठाना तो कोई आपसे सीखे'

(२)

मैंने उनसे प्रेम किया, बहुत किया---

फिर ऐसा किया की

अपना अस्तित्व खो बैठा
अब मैं शून्य था, वो ब्रह्माण्ड

मैं विलुप्त था, वो गतिमान

(३)

अब सचमुच मैं गायब था

ह्रदय से, विचार से, दुनिया से

और सोच से भी
मैंने उन्हें सौंपा था ब्रह्माण्ड और

उन्होंने मुझे स्वयं में शामिल ना किया
अब मैं अपना ठिकाना किसी और ग्रह में खोज रहा हूँ

इस ब्रह्माण्ड से बाहर हो
... फिलहाल मैं एक मुहाजिर हूँ, शरणार्थी भी कह सकते है आप मुझे।

---सागर