तुम क्या-क्या हो...


तुम एक बुखार हो;
उतारता हूँ, चढ़ आती हो

बारिश में भीगा ताज़ा गुलाब हो,
झीनी कपडों में छत पर निकल आती हो
तुम एक बूँद हो नूर की,
जहाँ से गुज़रती हो आरमान जगाती हो

एक कविता हो, प्रेम की,
जो हर युग में प्रासंगिक हो

तुम एक उदाहरण हो
बरबस होटों पर आ जाती हो

तुम, एक गल्प हो...
रात काटने का जरिया बन- आती हो

शिल्प हो, मूर्तिकार की
उसी के लिए चुनौती बन जाती हो

गैर-इरादतन सोच हो
अस्तित्व पर हावी रहती हो

तुम सृजन हो;
अंकुरण बन सिखलाती हो
तुम हर सदी की होने वाली क्रांति हो
शायद... अबकी आओगी उत्तरार्ध में

4 टिप्पणियाँ:

ओम आर्य said...

tum kya kya ho ..........jo bhi ho bahut hi prasangik ho ..........are bahut hi sundar aapane likha hai ..............badhaaee

डॉ .अनुराग said...

तुम, एक गल्प हो...
रात काटने का जरिया बन- आती हो

क्या बात है .....ओर यहाँ

गैर-इरादतन सोच हो....

के बाद की अगली लाइन में शुद्ध हिंदी थोडा सा रो में नहीं लग रही....या कुछ सोच के लिखा है....
अस्तित्व पर हावी रहती हो

सागर said...
This comment has been removed by the author.
सागर said...

Anuraag Ji,

गैर-इरादतन सोच यानि मौलिक सोच, नैचुरल थोट...
जो एकबारगी जेहेन में आता है, फिर उसे बदलना भी पड़ता है... दिमाग से सोच कर
तो तुम वोह पहली सोच हो... मौलिक, ओरिजिनल