समालोचक


मेरी कविता
कई उफानों को व्यक्त करती
बहुत से एहसासों को दर्ज करती
एक स्त्री का ज़र्द चेहरा है

इसे अपने शरीर का होश नहीं
कभी कहीं इसमें फ़कीर सी दीवानगी दिखती है
तो
कभी किसी कौव्वाल का सा सूफी समर्पण
छू दो कभी तो फट पड़े
कभी काटो तो खून नहीं
पूरी कविता एक मांसल स्त्री है
जिसे अपने शरीर का होश नहीं
जो 'प्रेग्नेंट' होने का भरम देती है
सालों से यह बच्चा जनना चाह रही है
पर न जाने कैसी बाँझ है यह !

बेतुकी सी बहती निकलती है कहीं से
जहाँ से छुओ पकड़ने को बहुत है
अपने ही घेरे में पुचकारती, सहलाती, डरती, मासूम और खूंखार
मेरी कविता!

1 टिप्पणियाँ:

ओम आर्य said...

क्या लिख दिया आपने सागर भाई, आपको पता है?

सालों से यह बच्चा जनना चाह रही है
पर न जाने कैसी बाँझ है यह !

गहराई में उतारने के लिए शुक्रिया.