तीन इक्के


यही वो दिन है
हाँ- हाँ यही बिलकुल यही
जब मैंने मजबूरी में
तुम्हारा हाथ थामा था

अनगिनत असफलताओं से हारकर
चल पड़ा था किसी और सफ़र के लिए
युवाओं का सा जोश था
दिल में कुछ कर गुजरने की चाहत
आखों में उम्मीद के जलते दीये लिए

तुम्हारा हाथ पकडा
औ' तुमने सीने से लगा लिया
शायद तुम्हें, मेरी मेरे से ज्यादा जरुरत थी!!!

अब जबकि यह समझ चुका हूँ मैं
कि तुम्हें, मेरी मेरे से ज्यादा जरुरत थी
तो क्यों न तुम्हें धोखा दे दूँ ?
कोई कारण बताओ नोटिस जारी कर दूँ ?

अब जब आज डिग्री मिल ही गयी
सोचता हूँ,
देश का स्यापा कर दूँ...

3 टिप्पणियाँ:

डॉ .अनुराग said...

कर दो भाई...नोटिस जारी कर ही दो.....

रवि कुमार, रावतभाटा said...

कई गहरे इशारे करती हुई कविता...

आपने जो शब्द काम में लिए थे:
क्या करोगे...जवान खून है... एक उम्र तक यह पागलपन रहेगी...

उसकी एक नियति के इशारे यहा देख रहा हूं..
मोहभंग की क्या वाज़िब पृष्ठभूमि है...

आईना दिखाने, और सावधान करने के लिए शुक्रिया....

ताहम... said...
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