फुर्सतों में खोल लेता हूँ;
तुम्हारे चेहरे की किताब
हवा का झोंका...
जब भी पन्ने फड़फड़ाता है
गुमां होता है-
मेरे चेहरे पर फूँक मार रही हो तुम
तिरछे निकल आये मोर पंख को सीधा करता हूँ
जो बार-बार वैसे ही निकल आते है, जैसे
तुम अपने लटों को दिलफरेब झटका देती हो...
फजाएं हस्सास होती हैं
होंठ किनारे से बेलगाम होते है
अक्षर खुशबू बनकर उड़ते हैं
दास्ताँ-ए-मुहब्बत साँस लेता है
जहाँ तक पढ़ पता हूँ
मोड़ लेता हूँ वो पन्ना...
एक अर्से से मुकम्मल करना चाहता हूँ
तुम्हारा चेहरा
पर आकाश जैसा तुम्हारे चेहरे की किताब
सिर्फ चुनिन्दा इतवार को पढने भर से तो
खत्म नहीं होगी ना !!!
3 टिप्पणियाँ:
"फुर्सतों में खोल लेता हूँ;
तुम्हारे चेहरे की किताब"
आगाज़ बहुत ही उम्दा है.. ये दो लाईने बहुत बढ़िया लगी..
पर आकाश जैसा तुम्हारे चेहरे की किताब
सिर्फ चुनिन्दा इतवार को पढने भर से तो
खत्म नहीं होगी ना !!!
कभी कभी शक होने लगता है प्रोफेशनल राइटर तो हो नहीं.हो...या कोई बिगडा हुआ नौजवान जो अब भी समझता है कलम से रिवोलुशन लाने की तरकीबे कामयाब होगी...पर सच में तुम्हारा एक अपना स्टाइल है ..ओरिजनल
उस दिलकश चेहरे के बारे में सोचती हूँ जो इन ब्रुश strokes से उभरा है. कैसी होगी वो जिसे देख कर ये कविता लिखी होगी तुमने.
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