ख़ास ख़बरें


-१-
हो गयी रात
सो गए सभी
सन्नाटा पसर गया
... अब... तुम्हारी बारी है.

-२-
फटे हुए दूध का थक्का
जमा है आसमान में
अलबत्ता,
मद्धम की रौशनी आ रही है उससे

-३-
रात एक शिकारी है
आखेट पर निकलता है
रात, हर रात मेरा शिकार कर
तमाम हड्डियाँ चूसता रहता है

-४-
खुलते है दरवाजे भी मेट्रो के
पर्स में रक्खे पास से ...
तमाम ताकतें सिमट आई हैं पर्स में...

-५-
पहली बार,
जिस गर्मजोशी से मिलता है आदमी
गुज़रते वक़्त के साथ, जाती रहती है वह भी
रिश्तों में भी 'क्लाइमेट चेंज' होता है...

-६-
शाम ढलते ही जगमगाती लाइटों से
सज जाती है पॉश इलाकों के बाज़ार
नमूदार होते हैं ब्रांडेड स्त्रियों के अन्तःवस्त्र भी
दो छोटे कपडे कई बार इंसानों की हैसियत बता जाते हैं

-७-
प्रोफेस्नल्निज्म जब से
मिला दी हमने दोस्ती में 'सागर'
डायनिंग टेबल पर डिश बढ़ गए;
जायका मगर जाता रहा ढाबे का

-८-
तुम समानता की सोचते हो
वो तो सर्वोच्चता लिए बैठीं हैं
जबसे योग्यता उनके 'कर्व' में बैठ गयी
स्त्रियाँ आगे निकल गयीं

-९-
खांटी मर्द बनकर बनाता हूँ जिस्मानी ताल्लुकात
फिर, निढाल हो विरक्त हो जाता हूँ, देह से
काश! ...जिंदगी भी ऐसे ही जी सकता!

-१०-
पासे फैंक रहे है शकुनि
और हर बाज़ी में उनकी पौबारह है
हमने उन्हें मामा बताया था
... अब हर दिन कुरुक्षेत्र होगा.

समालोचक


मेरी कविता
कई उफानों को व्यक्त करती
बहुत से एहसासों को दर्ज करती
एक स्त्री का ज़र्द चेहरा है

इसे अपने शरीर का होश नहीं
कभी कहीं इसमें फ़कीर सी दीवानगी दिखती है
तो
कभी किसी कौव्वाल का सा सूफी समर्पण
छू दो कभी तो फट पड़े
कभी काटो तो खून नहीं
पूरी कविता एक मांसल स्त्री है
जिसे अपने शरीर का होश नहीं
जो 'प्रेग्नेंट' होने का भरम देती है
सालों से यह बच्चा जनना चाह रही है
पर न जाने कैसी बाँझ है यह !

बेतुकी सी बहती निकलती है कहीं से
जहाँ से छुओ पकड़ने को बहुत है
अपने ही घेरे में पुचकारती, सहलाती, डरती, मासूम और खूंखार
मेरी कविता!

राउंड-अप-1


जिस्म गोया एक खूंटा है
और मैं, इससे बंधा गाय
चरता रहता हूँ वही
बची-खुची-नुची घास !
इसी परिधि में...

जी चाहता है तोड़ दूँ कभी यह रस्सी
बहक जाऊँ कभी किसी और के खेत में
चर आऊं जी भर कर हरी घास
दिमाग खुले...

...कि दुनिया सिर्फ इसी घेरे भर नहीं है
कि आज़ादी के मायने क्या हैं ?
कि जीने का मतलब सिर्फ मर जाना नहीं है.

बेलौस बहाव


यह पल जो अभी बीत रहा है
कितना पुरसुकून कितना मंद
मैं अपने पैरों के रोओं का हिलना महसूस करा रहा हूँ
अपने साँसों की आवाज़ भी सुन रहा हूँ
यहीं ठीक इसी कमरे के बाहर
एक गोली की रफ्तार सी चलती दुनिया है
मैं कर रहा हूँ कोशिश
डायल पर खड़े होकर सूइयों को पकड़ने की
मगर कमबख्त सूई
मुंह फुलाये हरेक खाने को छोड़कर भाग रहा है
यह कहता हुआ कि सुबह होने पर
तुम भी इसी दुनिया के बेशर्म चेहरे हो जाओगे...

बिसात


शतरंज के कुछ मोहरे दांव पर लगे हैं,
जिन्हें तुम अपनी भाषा में;
हाशिये पर के लोग कहते हो
एक वज़ीर है जो दे रहा है निर्देश उनको
उसके इशारे से सब रसूखदारों ने
अपनी चाल संयमित
औ' निर्धारित कर ली है
यही होता है दिलों में, रिश्तों में,
समाज में, मुल्क में
और विश्वस्तर पर भी

आज राजा की जरुरत नहीं है
औ' वजीर खुद को चे़क-मेट नहीं करेगा
तो जो प्यादे नपने को बिठाये गए हैं
उनकी फिक्र कौन करेगा ?

निर्वासन


कोई सियासी मुजरिम था!
या सजायाफ्ता कैदी...

एक अरसे से
निर्वासित जीवन जी रहा है
भवहें टेढी कर तुमने
फतवा जारी कर दिया है उसपर

काला है , पर तुम्हारे पहुँच से परे है
बनावटों के बीच मौलिक है
विशेषणों के बीच कर्ता है
निहत्था है, अकेला है

तुम्हारा आरोप है कि वो शिकायत करता रहता है
मैं भी कहता हूँ धुंआ उगलता रहता है
...बुनियाद मैं आग देख रहा होगा शायद

कोई जानवर है शायद तभी
अनिष्ट की आशंका भांप लेता है

आजकल...
कारखाने का चिमनी हो गया है
...
अच्छा, तभी शहर के सरहद पर बसा दिया है उसे!

बारिश में...


आसमान से नूर की बूँदें बरस रही हैं
एक एहसान है कुदरत का
औ' अब इसके साथ कई शर्तें हैं

भाग-दौड़ से थोडा फ़ारिग होकर
भींच लो इसको मुठ्ठी में
तुमने अपना बचपन सदियों से नहीं जिया है
इस अन्तराल में जी लो.

ज़रा पता करो कहाँ से आ रही है
यह बूंदे ?
कितनी दूर से यह दिखाई दे रही हैं?
कितनी मोटी और भारी हैं ये?

हाथ में वो किताब रख लो,
नज़र में दूरबीन
इन भींगे हरे पत्तों पर की तहरीरें पढो

देखा! ... नज़र आने लगी ना वही
...भींगी सी साहित्यिक नवयौवना !!!

मिज़ाजी-ज़ायका


अपनी जिंदगी से वो नाखुश रहता है...

उसे देर तक याद नहीं आता
पिछली बार खुल कर कब हँसा था
मुझसे शिकायत करता है
रोज़ सुबह मिजाज़ का जायका ख़राब रहता है

हादसों को सर पर लिए घूमता है
कहता है -
हलचल दिखती नहीं
उससे बदलाव होते नहीं
उठा-पटक को दबा दिया जाता है

मनुष्य शायद ...
गतिविधियों पर नियंत्रण रखना सीख गया है
सीमित हो गया है उसका दायरा

फिर अपनी कमजोरी बताने लगता है
वो खुद भी कहाँ फ़लक का मालिक रहा
एक निर्बाध दुनिया थी...
फिर, डरकर सिमटने लगता है...

तुम क्या-क्या हो...


तुम एक बुखार हो;
उतारता हूँ, चढ़ आती हो

बारिश में भीगा ताज़ा गुलाब हो,
झीनी कपडों में छत पर निकल आती हो
तुम एक बूँद हो नूर की,
जहाँ से गुज़रती हो आरमान जगाती हो

एक कविता हो, प्रेम की,
जो हर युग में प्रासंगिक हो

तुम एक उदाहरण हो
बरबस होटों पर आ जाती हो

तुम, एक गल्प हो...
रात काटने का जरिया बन- आती हो

शिल्प हो, मूर्तिकार की
उसी के लिए चुनौती बन जाती हो

गैर-इरादतन सोच हो
अस्तित्व पर हावी रहती हो

तुम सृजन हो;
अंकुरण बन सिखलाती हो
तुम हर सदी की होने वाली क्रांति हो
शायद... अबकी आओगी उत्तरार्ध में

कोई घटनाक्रम है, न कोई बदलाव


देखो,
कैसी थमी हुई सी दुनिया है...
कोई घटनाक्रम है, न कोई बदलाव
रजिस्टर में अब्सेंट हैं दोनों
शायद छुट्टी पर हो...

कारखाने का पहिया जाम है
स्कूल के बस्ते सुस्त है
चाँद भी पूर्णिमा के बाद मंद पड़ा है

सिगरेट सुलगाकर मैं भी तो यही सोच रहा हूँ
कि इसके ख़तम होने तक भी
नहीं बदलेगी दुनिया
'यह धुंआ खल्क होकर ही उड़ जायेगा'

कितना सूना है यह तुम्हारा लेखन
किरदार अपनी सीट पर नहीं दीखते
पांव पसारे सोये है

कोई हलचल नहीं है
मुल्क में,
औ' अलसाया सा वक़्त का पहिया घूम रहा है
कोशिशें सच्ची नहीं है
तभी तो...

'कोई घटनाक्रम है, न कोई बदलाव '

तीन इक्के


यही वो दिन है
हाँ- हाँ यही बिलकुल यही
जब मैंने मजबूरी में
तुम्हारा हाथ थामा था

अनगिनत असफलताओं से हारकर
चल पड़ा था किसी और सफ़र के लिए
युवाओं का सा जोश था
दिल में कुछ कर गुजरने की चाहत
आखों में उम्मीद के जलते दीये लिए

तुम्हारा हाथ पकडा
औ' तुमने सीने से लगा लिया
शायद तुम्हें, मेरी मेरे से ज्यादा जरुरत थी!!!

अब जबकि यह समझ चुका हूँ मैं
कि तुम्हें, मेरी मेरे से ज्यादा जरुरत थी
तो क्यों न तुम्हें धोखा दे दूँ ?
कोई कारण बताओ नोटिस जारी कर दूँ ?

अब जब आज डिग्री मिल ही गयी
सोचता हूँ,
देश का स्यापा कर दूँ...

नज़्म का निर्माण फिर-फिर...


जब भी लिखनी होती है कोई नज़्म
मैं दम साध लेता हूँ,
अपनी खुदाई करता हूँ,
जेहन को धकेल देता हूँ
तुम्हारी गलियों में,
नाकामियों में.

जिंदगी के कारखाने की मशीन में
इक इलैक्ट्रिक का झटका सा लगता है

डालता हूँ कोई वक़्त
रेशे उधड़ते है, सांस छिलते है
जिस्म थरथराता है

औ' थोडी देर बाद
मुठ्ठी भर तरल भाव निकल आते है

बिना धडकनों का बदन
लुढ़क जाता है एक तरफ
हर बार…

... कुछ नज्में, इसी दौरान किलकारियां भरने लगती हैं

आज मुहब्बत बंद है.


अगर आज कोई पर्व है;
तो चलो पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो जाएँ,
तो तुम्हारे बारें में ना सोचें,
तो रिश्तों, जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को प्राथमिकता दें

साल के कुछ खास दिन मुक़र्रर कर लें कि
इन दिनों में तुम्हारा तसव्वुर में दस्तक देना मना है

ना चाहते हुए भी
अपने बदन को उन रश्मों में शामिल कर लें,
चंद जोश भरे 'कोट्स' याद करें,
खुद को सांत्वना दें ,
कुछ महापुरुषों से खुद की तुलना करें ,
गैरों के दुःख से अपना दर्द मापें;
फिर इस निष्कर्ष पर निकलें कि-
ये तो कुछ भी नहीं!

साल-दर-साल गुज़ार दें ऐसे ही
फिर से जीने की तैयारी में
सिर्फ इस आस में कि कभी मिलो
तो दिखाऊँ तुम्हें,
कि किस तरह
एक अपाहिज से बैसाखी छीन लेने पर;
किस कदर
उसकी प्राथमिकता अचानक से बदल जाती है...

चेहरा पढने की कवायद


फुर्सतों में खोल लेता हूँ;
तुम्हारे चेहरे की किताब

हवा का झोंका...
जब भी पन्ने फड़फड़ाता है
गुमां होता है-
मेरे चेहरे पर फूँक मार रही हो तुम

तिरछे निकल आये मोर पंख को सीधा करता हूँ
जो बार-बार वैसे ही निकल आते है, जैसे
तुम अपने लटों को दिलफरेब झटका देती हो...

फजाएं हस्सास होती हैं
होंठ किनारे से बेलगाम होते है

अक्षर खुशबू बनकर उड़ते हैं
दास्ताँ-ए-मुहब्बत साँस लेता है

जहाँ तक पढ़ पता हूँ
मोड़ लेता हूँ वो पन्ना...

एक अर्से से मुकम्मल करना चाहता हूँ
तुम्हारा चेहरा

पर आकाश जैसा तुम्हारे चेहरे की किताब
सिर्फ चुनिन्दा इतवार को पढने भर से तो
खत्म नहीं होगी ना !!!