जब भी लिखनी होती है कोई नज़्म
मैं दम साध लेता हूँ,
अपनी खुदाई करता हूँ,
जेहन को धकेल देता हूँ
तुम्हारी गलियों में,
नाकामियों में.
जिंदगी के कारखाने की मशीन में
इक इलैक्ट्रिक का झटका सा लगता है
डालता हूँ कोई वक़्त
रेशे उधड़ते है, सांस छिलते है
जिस्म थरथराता है
औ' थोडी देर बाद
मुठ्ठी भर तरल भाव निकल आते है
बिना धडकनों का बदन
लुढ़क जाता है एक तरफ
हर बार…
... कुछ नज्में, इसी दौरान किलकारियां भरने लगती हैं
नज़्म का निर्माण फिर-फिर...
प्रस्तुतकर्ता
सागर
on Friday, August 7, 2009
2 टिप्पणियाँ:
ujhe aapki rachna pasand aayi
अपने खून से लिखना हर नज़्म...अमृता की बात बहुत निराली थी.फ़राज़ की भी एक नज़्म ऐसी ही है...ऐसी ही आप की बात पसंद आई...बेहतरीन है..रोमांचक..भी...
Nishant kaushik
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