पिछली बार याद नहीं कब रोया था
पर जब रोया था
इतना याद है
सफ्फाक बन गया था
अनुशासित पगडंडियों
पर परेड करती आँसू
दूर निकल गयी थी जिस्म के राजपथ पर
जुटाए हुए सारे पाप,
न भोगे हुए सारे कुकर्म
और ज़माने से की गयी सियासतें
...सभी बह गये थे
इन दिनों के दरमियाँ
वही तलब जागी है
झुन्झुलाने लगा हूँ हर बात पर
कोयल की कूक पर चिढ़ने लगा हूँ
कदाचित्! सूखे का दिन गया
2 टिप्पणियाँ:
सुन्दर रचना।
हाँ
बार बार लौटना होगा मुझे
उसी दिल की ओर
इस जमीर को जिलाए रखने के लिए....
Post a Comment