मेरा दर्द, ग़म, दुःख और ना जाने क्या-क्या


मैं उसे परे हटाता हूँ
वो थक-हार कर
मेरे ही कंधे पर सर रख देती है

भागते भीड़ में छान लेती है
मुझको
अंग-संग कभी नहीं लगी
जब भी लगी
जुडी आत्मा से

चाहे- अनचाहे
अपनाना ही पड़ा उसको
एक जबरदस्ती का विवाह हुआ था
फिर वो ठहरी जिद्दी दुल्हन

... निभाते क्या जिंदगी गुजरेगी ?

क्या नहीं है इसमें कुछ ?
तलाक जैसा कहीं कोई
गुंजाईश???

1 टिप्पणियाँ:

ओम आर्य said...

mera dard ......dero shubhkamanaye