पाज़ी नज़्में


-१-

क्यों कहती हो कि
मुझे पसंद है लाल रंग
बिलकुल खून जैसा!

... जबकि
मेरे रुमाल पर तो
लहू के वो धब्बे ... आज भी
हरे के हरे हैं 'एलियन'!!

- २-

तुम्हारी गर्दन पर छोड़ रखी है मैने
कुछ गर्म साँसे

...उनमें तुम भी हो और तुम्हारी ज़ुस्तज़ू भी,

अपने ज़ुल्फ़ो की हवा से
उस आग को ज़िंदा रखना

-३-

देर रात बोझिल क़दमों से जब
चढ़ता हूँ फ्लैट की सीढियाँ
जंगले से आती चाँद की मद्धम रौशनी
सन्नाटे का एहसास कराती है

बालकनी में अक्सर
अपने लैम्पपोस्ट की लाइट से
काफी देर तक मुझको
पढ़ा करता है चाँद

घंटे-डेढ़ घंटे बाद
वो 'घटा हुआ सा' नज़र आता है

...खुदा जाने!,
उसमें कुशादगी कब आएगी

2 टिप्पणियाँ:

सागर said...

कुशादगी- विस्तार

गंगेश राव said...

बहुत अच्छा लगा. बल्कि यु कहू बीते दिन याद आ गये. जारी रखेँ.