सच बताओ
बाहर जो शोर है
उसमें तुम्ही हो ना ?
तुम्हीं थे ना !
उसकी पृष्ठभूमि में, कार्यान्वयन में,
और
अब बरपे क्रंदन में ?
मैं विश्वास दिलाता हूँ
नहीं काटे जायेंगे तुम्हारे हाथ,
ना ही कोई कालापानी होगा
गर फांसी हुई तो कृपया मासूम बने रहना बस
... अभयदान मिल जायेगा.
तुमने कोई २ बरस की बच्ची के साथ बलात्कार थोड़े ही किया है ?
मैं इस कृत्य के लिए तुम्हें
हाशिये पर के लोगों की दुहाई नहीं दूंगा.
मुझे नहीं लगता कि
किसी जिम्मेदारी के एहसास के लिए
तुम्हें कहीं से कमजोर किया जाये
पर यह बताओ
वो जो ज़मीन पर हाथ पटक रहा है,
जिसे अभी बोलना तक नहीं आया,
जिसके मुंह से
चुइंगम जैसे गिरते-गिरते लार
हलक सुख गयी है.
औ'
आँखों में कोई दरया रुका पड़ा है...
इसके पीछे भी तुम्ही हो ना !
हुम्ह!
बेवजह लोग चित्रकार को पुरस्कृत करते हैं
असल में,
इन चित्रों को तो तुमने ही खींचा है.
21 टिप्पणियाँ:
सुंदर कविता, पसंद आई।
अभी कुछ नहीं कह पायूँगा . ...भय ओर वित्र्ष्ना दोनों है
पहले कमेन्ट को क्या सुन्दर लगा ....समझ नहीं पाया
waah!
kunwar ji,
एक दिन तुम
अपनी हीं बनाई चीजों के नीचे से
अपना हाथ खींच लोगे
और चीजें भरभरा कर गिरने लगेंगी
हाथ तुम खींचोगे
और शोर मेरे कानो में होगा
मैं विश्वास दिलाता हूँनहीं काटे जायेंगे तुम्हारे हाथ, ना ही कोई कालापानी होगागर फांसी हुई तो कृपया मासूम बने रहना बस... अभयदान मिल जायेगा.
बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।
बेवजह लोग चित्रकार को पुरस्कृत करते हैं
असल में,
इन चित्रों को तो तुमने ही खींचा है.
sagar ji........jawab nahi!
आँखों में कोई दरया रुका पड़ा है...
इसके पीछे भी तुम्ही हो ना !...यह लफ्ज़ है या सुबकते हुए ,दबे हुए आंसू जो पढने वाले की आँखे नम कर दे ..बहुत दिनों बाद कुछ ऐसा पढ़ा जो झंझोर कर रख दे ....
मैं विश्वास दिलाती हूँ
आप अब साधारण
जमात में नहीं .....
पूरा नाम बताइए अपना नोट करके रख लूँ .......!!
भई बड़ी पैनी कलम से लिख रहे हो आप..लेखकीय क्षोभ, असहायता, आक्रोश और भय कविता के पिघल कर बह रहा है..कविता जैसे शीशे के सामने खड़े हो कर लिखी गयी हो..
एक गहरा नकार सामने आता है कविता मे..जो किसी एक व्यक्ति को नही वरन् एक विचार, एक भावना को सम्बोधित करती है..कि पाठक का एक हिस्सा भी कटघरे मे खड़ा महसूस होता है..और यह कोई आरोप तय नही करती..सीधे शब्दों मे मारती है..बेलाग..
मुझे नहीं लगता कि
किसी जिम्मेदारी के एहसास के लिए
तुम्हें कहीं से कमजोर किया जाये
बुरे वक्त मे एक मुश्किल मगर ईमानदार कविता!!
इन सबके पीछे वही है.. सब उसी का खेला है.. कभी कभी ज़िन्दगी को इतना जानना भी नही चाहिये.. काफ़ी चीज़ो से विश्वास उठने लगता है.. सब ऐसे ही चलेगा, तो एक दिन इस चित्रकार से भी विश्वास उठ जायेगा.. शायद वही प्रलय होगी...
बाकी आपकी शैली के बारे मे तो हरकीरत जी ने बोल दिया.. आप विशिष्ट है.. :)
एक गाने का एक स्टार्टिग शेर है.. शायद फ़ैज़ या जावेद साहब का है..
दिल नाउम्मीद तो नही, नाकाम ही तो है।
लम्बी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है....
अपने अन्दर के गुस्से को अच्छे शब्दों में तरीके से पेश करने के सफल प्रयास के लिया बधाई के पात्र हैं आप.
बेहद सही पिक्चर पेश कि है आपने.
बेवजह लोग चित्रकार को पुरस्कृत करते हैं
असल में,
इन चित्रों को तो तुमने ही खींचा है.चित्र खींचने वाले कोई और होते है उन चित्रों को दिखने वाले इनाम लिए जाते है.न वकील,न दलील,न अपील...
न्याय मिलते मिलते पौधे पेड़ हो जाते है..
क्या टिपण्णी करूँ ?????
आपकी लेखनी को नमन !!!
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कुछ कविताएँ पढ़कर मन कसैला हो जाता है...यही उनकी खूबी होती है कि वे आपको याद दिलाएँ कि ये दुनिया जैसी दिखती है, वैसी नहीं है...इसके पीछे कुछ और है.
आँखों में कोई दरया रुका पड़ा है...
इसके पीछे भी तुम्ही हो ना...
aur bas ek din achanak hi aankhon se garm sote footpadte hai..badi hi imaandaari se bayan hui hai saari vishamtaayein...
kya baat hai ..behad shandar kavita...padhte padhte nabz me ghus jaati hai ..
मुक्तिजी से सहमत!
bahut accha likhte ho..accha aur alag
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