गवाह बोलते हैं-
हाँ!
गज़ब का ज़हीन था
पर मर गया
बचपन से
आसमां पैमां बनने की ख्वाहिश पाले
संभावित सायेदार पेड़ जैसा खड़ा
सामने के बाड़े में अपने उतरने की
प्रतीक्षा में रह गया.
गज़ब का ज़हीन था
पर मर गया
इश्क का खौफ यूँ था कि
चैन से ब्लू फिल्म देखना मुहाल था
कहता;
नायिका के शक्ल में प्रेमिका दिखती है
बाहर ही बाहर
वक्त ने इतने निर्णायक फैसले सुनाए कि
अपनी मिटटी में धंस गया
गज़ब का ज़हीन था
पर मर गया
झुर्रियाँ, एक दूसरे को फ्लाई ओवर की तरह काटती थी
सनक में लिखता था,
झोंक में चलता था,
आज़ादी के लिए मरता था,
आज़ाद होकर बोलता था,
खुद को छुपाता था पर
भेद खुल ही जाता था
पुर्नजन्म में यकीं न था
यूं मीठा ज़हर चखते-चखते मर गया
गज़ब का ज़हीन था
पर मर गया
वो जीने के लिए उतारा गया था
लेकिन मर गया.
कहता था
"योग्यताएं पर्स में पड़े कंडोम जैसी होती हैं
गर समय से प्रयोग न आए तो
'उठते-बैठते' क्षतिग्रस्त हो जाती हैं"
30 टिप्पणियाँ:
यहाँ ‘उठते-बैठते’ का मतलब जिंदगी गुजरने, निकलने या बीतने से है.
बोल, कि लब आजाद हैं तेरे
बोल, जबां अब तक तेरी है
बोल कि थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल, कि सच ज़िन्दा है जब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले!
- फैज़
और कुछ नहीं कह सकूंगी
रामनवमी की शुभकामनायें!
और कुछ नहीं कह सकूंगा।
रामनवमीं की मंगलकामनाएँ.
"योग्यताएं पर्स में पड़े कंडोम जैसी होती हैं
गर समय से प्रयोग न आए तो
'उठते-बैठते' क्षतिग्रस्त हो जाती हैं ..
अंजाने ही सही .. पर कवि सच कह गया है .... बहुत लाजवाब हमेशा की तरह ...
तुम वक़्त के एक दौर में गुजर रहे वो आदमी हो ....जो साला अक्सर दिमाग की कॉल बेल बजता रहता है ......खास तौर से उस वक़्त जब कोई ऊँघ रहा होता है ....इत्ते सच काहे बोलते हो .....इस ज़माने में
:) आपसे कहा था न कि लिखते कम हो और कत्लेआम ज्यादा मचाते हो..
आज फ़िर एक ज़हीन को मार दिया..
और ये जाते जाते क्या निशानी दे दी.. उफ़्फ़.., अब क्या नौकरी छुडवाओगे मेरी.. :)
यार ये सागरवादी कवितायें हिंदी कविता को क्या बनाना चाह रही हैं :) ....अज्ञेय और बाकी प्रयोगवादी कवि भी सोच रहे होगे कि ये हमारे समय में क्यों पैदा नहीं हुआ
ये आपका भ्रम है कि कविता में कुछ shocking और unsettling डाल देने से ,जिसे पढ़ते हुए आँखें चौड़ी हो जाएँ , कविता सफल हो जाएगी ...
ठीक है स्वच्छंद सोचो, उन्मुक्त सोचो और वही लिखो पर कुछ शब्दों के बगैर प्रयोग के भी स्वच्छंदता और उन्मुक्तता दिखाई जा सकती है..मसलन ' कंडोम ' शब्द के लिखे बिना भी कविता का मूल भाव वही रहता ..बल्कि और बेहतर बहता ..फिर बेकार में काहे !!!
प्रिय एनोनमस जी,
"अज्ञेय और बाकी प्रयोगवादी कवि भी सोच रहे होगे कि ये हमारे समय में क्यों पैदा नहीं हुआ"
....... जीते जी आपने मुझे आपने ऐसा कमेन्ट दिया. आभारी हूँ आपका पर इस योग्य तो कतई नहीं."
रही आपकी अगली बात
"ये आपका भ्रम है कि कविता में कुछ shocking और unsettling डाल देने से ,जिसे पढ़ते हुए आँखें चौड़ी हो जाएँ , कविता सफल हो जाएगी ..."
............तो अभी २ दिन दिन पहले तक मैंने सआदत हसन मंटो की प्रोफाइल लगायी थी उसे फिर से लगा रहा हूँ... (थोड़ी छोटी करके )
" मैं हंगामा पसन्द नहीं। मैं लोगों के ख़यालातों-ज़ज्बात में हेजान पैदा करना नहीं चाहता। मैं तहजीबो-तमद्दुन की और सोसायटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं... लोग मुझे सियाह क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूं कि तख्ता-ए-सियाह की सियाही और ज्यादा नुमायां हो जाए। यह मेरा ख़ास अन्दाज़, मेरा ख़ाज तर्ज़ है जिसे फ़हशनिगारी, तरक्कीपसंद और ख़ुदा मालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है - लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमबख्त को गाली भी सलीके से नहीं दी जाती..."
एक बात दुष्यंत कुमार की भी "
"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी चाहत है की तस्वीर बदलनी चाहिए " (पूरी तरह सही नहीं है पर ऐसा ही कुछ था, माफ़ी )
मैं जानता हूँ की कंडोम का जिक्र किये बिना भी मूल भाव वही रहता पर उदहारण से धार बढ़ जाती है (और सच कहूँ तो यही लय था) यकीन मानिये यह बेकार में नहीं है. हकीकत है... रही मेरी बात तो बहुत सारा कमेन्ट मुझे नहीं मिलेगा (और ना मिलता है) यह भान है मुझे.
"ठीक है स्वच्छंद सोचो, उन्मुक्त सोचो और वही लिखो पर कुछ शब्दों के बगैर प्रयोग के भी स्वच्छंदता और उन्मुक्तता दिखाई जा सकती है.."
आपके सुझाव और सलाह के लिए धन्यवाद. मुझे बहुत अच्छा लगा. आगे भी बताते रहें ऐसे ही खुल कर.
कविता पर तो बातें होती रहेंगी...मगर अभी बेनामी बंधु की बात ने ध्यान आकर्षित किया..कुछ जरूरी बातों की तरफ़ उन्होने इंगित किया है..सच कहूँ तो कभी-कभी मैं भी सागर की कुछ कविताओं की भाषा, बिम्ब आदि से असहज महसूस करता हूँ..मगर मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि ऐसे शब्द या बिम्ब कवि कविता मे किसी सस्ते ’शॉक-वल्यू’ या ’अन्सेट्लिंग-इफ़ेक्ट’ उत्पन्न करने के लिये नही रखता है..इस कवि की प्रखर प्रतिभा को किसी टी आर पी की बैसाखियों की जरूरत नही है..बल्कि यह असहजता मेरे अपने तथाकथित संस्कारों की वजह से उपजती है..हमारा समाज हमें इतनी समझ दे देता है कि कौन सी पुस्तकें दिन के उजाले मे और कौन सी सबके सो जाने के बाद रात के धुंधलके मे पढ़नी हैं..और दिन-रात का यही फ़र्क हमारे आडम्बर को जन्म देता है..तभी जब साहित्य मे सेक्स, कंडोम आदि शब्दों को वर्ज्य घोषित करके हम शुचितावादी साहित्य की परिभाषा तय कर रहे होते हैं..तब हम ’साहित्य समाज का दर्पण है’ जैसी उक्ति को झुठला रहे होते हैं..और इसीलिये मंटो, राजकमल चौधरी, शक्ति चट्टोपाध्याय, मलय राय आदि साहित्यिक पंगत से बहिष्कृत कर दिये जाते है..मैं प्रयोगवाद या अज्ञेय आदि के बारे मे कुछ नही जानता मगर मानता हूँ कि साहित्य का एक काम हमारी नैतिक प्रपत्तियों मे मौजूद खोखलेपन व आडम्बर को चुनौती देने का भी होता है..और ऐसा साहित्य हमें असहज बनाता है..मगर यह असहजता उस साहित्य की कमी नही वरन हमारे नैतिक/वैचारिक असमंजस की वजह से है..उन्नीसवीं शती के पूर्वाग्रहों के सहारे हम इक्कीसवीं सदी के साथ न्याय नही कर सकते..साहित्य तो इसका एक बेहद छोटा टुकड़ा मात्र है!!!
..खैर!
झुर्रियाँ, एक दूसरे को फ्लाई ओवर की तरह काटती थी
सनक में लिखता था,
झोंक में चलता था,
आज़ादी के लिए मरता था,
आज़ाद होकर बोलता था,
खुद को छुपाता था पर
भेद खुल ही जाता था
पुर्नजन्म में यकीं न था
यूं मीठा ज़हर चखते-चखते मर गया..............
कविता ........नए प्रयोगों की बानगी है यह लेखन........अभिजात्य से लगने वाले शब्दों को रोजमर्र्रा की स्थितियों के साथ बड़ी खूबसूरती से जोड़ा है आपने.......
योग्यता कंडोम है.. क्या बात है दोस्त...
वैसे जो लोग जहीन नहीं होते वे मरते नहीं है क्या??
हाय सागर ब्रांड कविता... यानि सच का विद्रोही रूप
आपकी हर तीसरी कविता पढ़ते हुए धीरेन्द्र अस्थाना की कहानियां याद आ जाती है.
@ बेनामी जी...
अगर हमें जन सरोकारों कि बात करनी है तो उनकी ही भाषा में करनी होगी,
सागर यदि कवि हैं तो शायद ये बात नाजायज़ हो सकती है...
पर में 'मंटो','राजकमल चौधरी' आदि को समाज का चील और साँप मानता हूँ.
सड़ी हुई वर्जनाओं की लाश में से बदबू आती है और साहित्यिक चूहे विचारों की फसल बर्बाद करते आये हैं.
@ sagar ji...
आपकी कविता से एस. के. बटालवी का interview याद हो आया...
http://www.youtube.com/watch?v=EgpSHpATAIM
5:54 से आगे देखिये...
जो भी बौद्धिक है वो मर रहा है हर पल.
@Dasrshan
Thanks for the link.. Sagar ka to pata nahi, I am surely gonna watch it :)
एक चीज़ पर आप लोग गौर नहीं कर रहे हैं ..कविता का विषय यदि समाज का नंगापन दिखाना होता, तब सेक्स विषयक लिखना स्वीकार्य था पर यहाँ कविता का मूल विषय कुछ और है , कवि कहना कुछ और चाहता है , उस पर यदि सेक्स विषयक प्रतीकों और उपमानों का प्रयोग किया जायेगा तब जरूर ही कुछ जबरन जैसा लगता है ...(हालांकि अक्सर होता इसके विपरीत ही है ..लोग सेक्स के बारे में लिखते हुए भी उपमान दूसरे ही प्रयोग करते हैं , पर कविता का मूल उद्देश्य बखूबी समझ में आता है , ध्यान दें मैं केवल कविता का जिक्र कर रहा हूँ )
और जैसा कि पूर्ववर्ती पाठकों ने मंटो, राजकमल चौधरी इत्यादि लेखकों का जिक्र किया है , वहां स्थिति दूसरी है .१) वे सब लेखक हैं , कहानियों में कविता की अपेक्षा अधिक खुलकर लिखने की स्वतन्त्रता होती है, और २) उनकी शब्दावली विषय के अनुकूल है ..
मुझे केवल इस बात की शंका है कि कविता में शब्दों की इतनी स्वतन्त्रता देने से क्या वास्तव में कविता को उचित दिशा मिलेगी ??
मैंने विश्व की किसी भी भाषा के काव्य में शब्दों का इतना खुलकर प्रयोग नहीं देखा और फिर यदि कविता में सब कुछ प्रत्यक्ष ही लिखने लगे , फिर कविता और एक ललित निबंध में क्या भेद रह जाता है ??
सागर की ही एक पुरानी कविता की याद आ रही है
राह पर गिराए
तुम्हारी चूड़ी लिए बैठा हूँ
औ' यह चुभती है
इस तरह कि
जैसे आवारा की आँखों में
विकसित होता कमसिन वक्ष
इसे पढ़ते हुए कहीं बीच में रुकावट नहीं आती ,विषयानुकूल भी है और प्रमुखतः ऐसा नहीं लगता कि क्या चल रहा था और ये बीच में क्या आ टपका और इसीलिए कविता में बहाव बरकरार रहता है और कविता असहज नहीं लगती ..
इस मायने में विचाराधीन कविता निश्चय ही कमजोर मालूम होती है .....
"योग्यताएं पर्स में पड़े कंडोम जैसी होती हैं
गर समय से प्रयोग न आए तो
'उठते-बैठते' क्षतिग्रस्त हो जाती हैं
ऐसा लगता है कि क्या वास्तव में कंडोम के सिवा संसार में दूसरी वस्तु नहीं है जिससे योग्यताओं की तुलना की जा सके
सागर से इतने गैर-जिम्मेदाराना लेखन की अपेक्षा नहीं की जा सकती
आप बेहतर लिख रहे/रहीं हैं .आपकी हर पोस्ट यह निशानदेही करती है कि आप एक जागरूक और प्रतिबद्ध रचनाकार हैं जिसे रोज़ रोज़ क्षरित होती इंसानियत उद्वेलित कर देती है.वरना ब्लॉग-जगत में आज हर कहीं फ़ासीवाद परवरिश पाता दिखाई देता है.
हम साथी दिनों से ऐसे अग्रीग्रटर की तलाश में थे.जहां सिर्फ हमख्याल और हमज़बाँ लोग शामिल हों.तो आज यह मंच बन गया.इसका पता है http://hamzabaan.feedcluster.com/
सागर साहब, अपने बेनामी शुभचिंतक जी की बात पर जरा ध्यान दें..कविता मे प्रतीकों के प्रयोग की उपादेयता से संबंधित यह एक अच्छा परामर्श है और परिपक्व होते रचनाकर्म के लिये जरूरी शर्त भी..हाँ अन्य भाषा के काव्य के बारे मे देखें तो मुझे लगता है कि संस्कृत काव्य मे ही यौन-विषयक प्रतीक बहुत सहजता और सामान्यता के साथ सामने आते हैं..कभी-कभी बेवक्त भी....जैसे कि कुमार संभव, गीत-गोविंदम् या वल्लभदेव की रचनाएं आदि...
कविता पर वापस आते हैं..
बाहर ही बाहर
वक्त ने इतने निर्णायक फैसले सुनाए कि
अपनी मिटटी में धंस गया
यह कविता की सबसे गहन और दूर तक जाती पंक्ति मुझे लगी..अपनी ही मिट्टी मे धंसना..मिथकीय लगता है..मगर वास्तविक है..और त्रासद भी..ऐसा ही लगता होगा जब कि किसान पिछली फ़स्ल का कर्ज चुकाने मे असफ़ल हो गया हो..या सदियों पुराने पेड़ की जड़े ही दीमकें खा रही हों..या वक्त के मुकाबिल आपका अपना जमीर ही आपकी गवाही न दे...कहीं गहरे धंसी जाती हैं यह पंक्तियाँ..
और झुर्रियों के फ़्लाइओवर कविता को कहीं कन्फ़्यूज कर रहे हैं या नया अर्थ देते हैं..समझ नही आया!!
..और प्रोफ़ाइल कुछ अधूरा है भई आपका..पूरा करो!
:-)
ये कविता कहीं भी होती छपी या लिखी बगैर किसी नाम के तो भी मैं बेखौफ़ कह जाता कि ये सागर की लिखी है। अपने इस शैली को बरकरार रखना मियाँ।
आलोचना को स्वीकारने की तुम्हारी आदत भाती है और अदा भी जिस स्टाइल में स्वीकारते हो। अनाम बंधु की बातें ब्लौग परिपाटी से तनिक अलग सी है जो चकित करती है और हां ’राजकमल’ को भी कहानीकार में गिनना भी चकित करता है। मेरे ख्याल से वो जितने कहानीकार थे, उसने ही कवि भी थे अगर ज्यादा नहीं।
बिम्ब के तौर पे "कंडोम" का अखरना अपना-अपना व्यक्तिगय दृष्टिकोण हो सकता है...किंतु महज ये कहकर कि फलां रचना कविता है तो उसमें बोल्डनेस कम होनी चाहिये,बात जँचती नहीं। कविता तो अपने अ-कविता रूप-रंग में पहले ही कई प्रतिमान तोड़ चुकी है...वो प्रतिमान को तोड़ना भी क्या निराला का ग़ज़ब का बोल्डनेस नहीं था। भृकुटियां तब भी टेढ़ी हुई थीं।
कमाल है कि "ब्लू फिल्म" नहीं अखरा और कंडोम अखर गया...
कवि अगर यहाँ कंडोम का इस्तेमाल न करता बिम्ब के तौर पर तो शायअद हम पाठकों को पता भी नहीं चलता, किंतु अब जब इस बिम्ब का प्र्योग हुआ है तो लग रहा है कि ये पूरी कविता का एक अहम हिस्सा है।
keep it up boy...keep nocking...world is going to hear you out soon.god bless u!
सागर तुम्हारी कविता अक्सर मुझे धूमिल की याद दिलाती है। टीवी पर चौबीसो घंटे गूंजता कंडोम,रेप और न जाने क्या-क्या जिन्हें सहज लगता है वे कविता में इनके प्रवेश पर हाय तौबा मचाने लगते हैं। शायद कविता इनके लिये कोई प्यूरिटन सी शर्मीली वधू है जिसके चेहरे पर गुस्सा और मुख पर गाली शोभा नहीं देती।
वैसे एक सलाह यह कि एनानिमस कमेण्ट की या तो सुविधा हटा दो या इनके किसी सवाल को ज़्यादा गंभीरता से न लिया करो।
यह गुस्सा बेहद ज़ायज़ है और समझ आता है बशर्ते आपके पास एक धड़कता हुआ दिल हो!
achhi hai .. kavita ka yah "condom-look " sahi laga ..
बहुत खूब!
http://anunaad.blogspot.com/2010/07/blog-post_08.html
बढ़िया कविता..खालिस तुम्हारे अंदाज़ की कविता ! कंडोम का प्रयोग कही भी असहज नहीं लगता है इसमें! तुम्हारा एक अलग फ्लेवर है...और पढने वालो को यही चाहिए होता है तुमसे!
मित्र आपको जब ढूँढा तब आप मिले नहीं और आज मिले हैं तो ऐसा कुछ लेकर, जिसे पढ़कर जितना आनन्द आया उतना अचंभित भी हुआ टिप्पणियाँ देखकर, कुछ लोगों ने ऊपर ठीक ही कहा है.. बढते रहो. में भी यही दोहराऊंगा..
LOVED IT BUDDY..
itna sach kahe bolte ho, thik keh rahe hain anuraag sir
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