सर्प-दंश

स्नेह !

उठो

आ कर मुझे बहरूपिया बना दो


हिंसा, आतंक, आम आदमी, जनता, सेवा !

आओ

मेरे जिह्वा पर विराजो

मुझे इनकी दुहाई देते खाना है


विस्तार !

तुम्हें तो मौके देख कर पहनना होगा मुझे


मेरे अभिमान,

मुझे किसी ऊँचे पत्थर पर ले चलो

वहाँ से फीते लटका मुझे वर्तमान स्तर

जानना है.


प्रेम

मेरे सबसे जिम्मेदार चोले !

मुझे नाचना सिखला दे


चाह!

मुझे छुपा सत्य बतला दे

मैंने जो प्रेम बांटे हैं

उसमें कितने कांटे हैं ?


मैंने लिफाफों से कहा है;

खत,

खुलो मेरे पास

जला कर राख करना है तुम्हें

अभी

अपनी विनम्रता की आग में

19 टिप्पणियाँ:

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बहुत अच्छी कविता.
..बधाई.

जो खटक रहा है लिख रहा हूँ..

खाना है..जाना है.

ऊँचे पत्थर ..ऊँचे पहाड़

रवि कुमार, रावतभाटा said...

एक और बेहतर कविता...
उलझाती हुई...

संगीता पुरी said...

हिंसा, आतंक, आम आदमी, जनता, सेवा !

आओ

मेरे जिह्वा पर विराजो

मुझे इनकी दुहाई देते खाना है

क्‍या खूब कहा !!

Unknown said...

its nice.
praveen tripathi
editor
chautha morcha weekly

ओम आर्य said...

main unke bare men tha
jinke baare men ve khud nahi the

Parul kanani said...

bhavon ka nirantar pravaah bahut sundar hai..

Ambarish said...

मैंने जो प्रेम बांटे हैं

उसमें कितने कांटे हैं ?

आह कहूँ या वाह...

अपूर्व said...

कुछ नयी किस्म की चीज हाथ लगी है..अभिमान के सहारे फ़ीते लटका कर वर्तमान स्तर जानने की बात मजेदार लगी...और सो ही प्रेम के काँटे तो पहले कवि के हिस्से पड़ते आये थे..और यहाँ तो फ़ूलों मे छुपा कर बाँट दिये गये हैं...सही!!
और खत...?

डॉ .अनुराग said...

अच्छा है तुम्हारे लिए प्रेम अब भी सबसे जिम्मेदार चोला है .......वैसे इस मुए अभिमान को कोई ऊँचा पत्थर नहीं मिलता .......मिले तो बताना

डिम्पल मल्होत्रा said...

बात से बात निकली तो दूर तक गयी.सही है अभिमान इतने ऊँचे पत्थर पे बैठ के भी वर्तमान की फ़िक्र रखता है.कृप्या बताये स्नेह,प्रेम विस्तार,ख़त किस किस ने आपका कहना माना.

के सी said...

कुछ अचरज हमेशा दो कदम आगे खड़े मिलते है ठीक ऐसे ही ये कविता आगे बढती है. अभिमान की ऊंची टेक की ओर झाँक रहा हूँ और विनम्रता की आग से तप रहा हूँ... हे कवि तुम जो कुछ कह जाते हो उससे बाहर निकलने में वक़्त तो लगता ही है.

गौतम राजऋषि said...

आज दिनों बाद अपने प्यारे छोटकु कवि की गहरी मार करती कविताओं से मिलने आ पाया हूँ। व्यस्तता- उफ़्फ़ ये व्यस्तता!

"मेरे अभिमान, मुझे किसी ऊँचे पत्थर पर ले चलो वहाँ से फीते लटका मुझे वर्तमान स्तर जानना है" कविता में एक और कविता- इकलौता मिस्रा कि अपने में संपूर्ण कविता एक।

"बहुत अच्छा लिखते हो"- डायलाग पुराना हो गया, किंतु नया है नहीं मेरे पास कोई और।

कविता की लय तनिक ठिठक जाती है आकर आखिरी बन पे। कि इस जैसे "स्नेह" , "हिंसा..." या फिर "विस्तार" और " मेरे अभिमान" और " "प्रेम मेरे" और "चाह"...इन तमाम संबोधन से चलती हुई कविता आगे "खत" से भी तो शुरु हो सकती थी "मैंने लिफाफों से कहा" की जगह?

साइड-बार पे उकेरे गये मंटो के शब्दों को चरितार्थ करते हो तुम सागर...कुछ इतना कि मैं भी तुम्हारी तरह लिखना चाहता हूँ।

नई कविता के द्वार पे सशक्त दस्तक देता हुआ सागर दिख रहा है मुझे। इस दस्तक की ठक-ठक को मद्धिम न पड़ने देना, वत्स।

अपूर्व said...

काश प्रेम एक चोला ही होता तो हम सब उसे ओढ़ लेते और अपनी कुरूपता छिपा लेते....और उसको ’जिम्मेदार’ चोला समझने की ख्वहिश भी कितनी भोली है..हाँ प्रेम के एक अच्छे कॉरियोग्राफ़र होने की बात जरूर सही लगती है..उनके लिये भी जिनका आँगन टेढ़ा है..

संजय भास्‍कर said...

काश प्रेम एक चोला ही होता तो हम सब उसे ओढ़ लेते और अपनी कुरूपता छिपा लेते..

संजय भास्‍कर said...

मैंने लिफाफों से कहा है; खत, खुलो मेरे पास जला कर राख करना है तुम्हें अभी अपनी विनम्रता की आग में


........लाजवाब पंक्तियाँ .........

Sarita Chaturvedi said...

KITNA SUNDAR!

kshama said...

Waah! Harek pankti dohrayi ja sakti hai!

हरकीरत ' हीर' said...

लाजवाब लिखने लगे हैं आप .......!!

पिछली कवितायेँ भी पसंदीदा हैं .....अब संकलन की तैयारी कीजिये ......!!

अनूप शुक्ल said...

कहां -कहां से होते हुये खतरनाक विनम्रता तक पहुंचे।