कवि कह गया है - 3


फफककर रो ही पड़ो अब इस बसंत में,
सबदे हुए कलेजे को ज़रा देर धूप लगा लो,
किसी कोंपल का खिलना देख लो,
या चुपचाप किसी पत्ते का दरख़्त से जुदा होना,
ख्याल ये रहे कि कोई आवाज़ न हो
किसी की नज़र न पड़े
एक फूल ही तोड़ लो सरसों का, इस मौसिम में

कारण जान लो कि क्यों
हर शाम आसमान के किनारे सोना पिघलता जाता है,
पल्लू का एक टुकड़ा दांत से दबा कर
भंसा कि ड्योढ़ी पर ही क्यों बैठी रहती है 'वो'
क्या स्वाद होता है उस पसीने का जो आंसुओं से मिल जाते हैं
अनुपात वहां कितना मायने रखता है ?

जिस वेग से बहती है नदी भादो में...
लबालब...
आंसू वैसे ही अब-डब रहता है न आखों में
बाँध दिल पर अगर नहीं होता है तो
क्यों साकार हो जाता है मंज़र

कुछ भी कर लो;
याद रखना पर कि
सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है...

33 टिप्पणियाँ:

अमिताभ श्रीवास्तव said...

achhi rachna/

दिगम्बर नासवा said...

हर शाम आसमान के किनारे सोना पिघल जाता है
पल्लू का एक टुकड़ा दांत से दबा कर
भंसा कि ड्योढ़ी पर ही क्यों बैठी रहती है 'वो'
क्या स्वाद होता है उस पसीने का
जो आंसुओं से मिल जाते हैं ....

कुछ ऐसे ही अनसुलझे जवाब माँगत् है आपकी रचना हमेशा ही .......... और उत्तर की तलाश में घूमती हुई रचना कुछ अंजाने से मोड़ पर च्ड जाती है .......... जहाँ याद रखना आसान नही होता kyon ........

सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है..

शिरीष कुमार मौर्य said...

achchhee kavita. antim do panktiyon mein chhupa hai kavitadhan.

रजनी भार्गव said...

बहुत अच्छी लगी, ऐसी अनुभुति जो मन में गहरी उतर गई।

ओम आर्य said...

सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है..

और कवि भी कभी-कभी कह पाता है ऐसी कविता...

Puja Upadhyay said...

जाने कैसी रोशनी से लिखा है की हर लफ्ज़ में उजाला सा बिखरा है, शायद कहीं कोई खुदा है जो तुम्हारी दवात में अपनी उँगलियाँ डुबो देता है...जब लिखते हो जैसे मरहम सा लग जाता है जख्मों पर. ऐसी नेमत किसी कवि को ही देता है खुदा. दुआओं सा लिखा है मेरे दोस्त...सच कहते हो "सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है..."

गौतम राजऋषि said...

लो आज ही तो तुमसे बात हुई...तारीफ़ से इतने कुप्प्पे हो गये हो... :-) मैं तो आया था फिर से उसी कविता को फिर से पढ़ने...बोनस?

पूजा की बातें मेरी भी टिप्पणी मानी जाये फिलहाल...आता हूं फिर से।

sanjay vyas said...

इस छोटी सी कविता में बड़ी सघनता है..इस वसंत के पार बहुत लम्बा है जीवन...इस लिए ज़रा देर जितना ही है समय.

अच्छी कविता और समेटने के लिए 'कविताधन' भी.

अनिल कान्त said...

सागर साहब...सागर साहब...सागर साहब

रंजू भाटिया said...

यह कवि मन भी अजब गजब बाते कर जाता है पढ़ते ही दिल हो उठता है खिलते बसंत में विरह मन सा ...और जब तक आत्मसत इन में खुद को करके डूबने को होता है तभी यह कवि जैसे झंझोर के उठा देता है यह कह कर ...सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते....कमाल है ...शुक्रिया

Ashok Kumar pandey said...

निखरती ही जा रही है तुम्हारी कलम
ख़ूब सारी शुभकामनायें

हां मौसिम को मौसम होना चाहिये था शायद्…

पारुल "पुखराज" said...

बढ़िया ..बहुत बढ़िया है ...kavi kahta rahe


इस छोटे महीने/बसंत में रोना..रोने का मन हो आना ...सुन्दर बात कही

संध्या आर्य said...

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डॉ .अनुराग said...

इस बार मूड कुछ जुदा सा है.....क्रांतिकारी कवि थोडा चुप है ..

डिम्पल मल्होत्रा said...

ख्याल ये रहे कि कोई आवाज़ न हो.
एक फूल भी तोड़ते वक़्त सरसों का ,
जैसे फूल को पता न चले के उसे तोडा गया है.

awesome

रवि कुमार, रावतभाटा said...

उफ़..कवि यह क्या कह गया...
और किस अंदाज़ में कह गया...

एक और बेहतर कविता....

अर्कजेश said...

कुछ भी कर लो;
याद रखना पर कि
सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है...

खूब कह रहा है कवि हर बार ... आपकी कविताओं से गुजरना...

PRAVEEN said...

awesome ....

Amrendra Nath Tripathi said...

पिछली पोस्ट पर दाल चुका अपनी टीप
को थोडा चुकते हुए देख रहा हूँ यहाँ !
यहाँ तो लट्टू हूँ ---
'' सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है... '' आभार ,,,

Amrendra Nath Tripathi said...

सॉरी --- दाल == डाल माना जाय , जनाब !
[ मेरी टीप में ही , अन्यत्र नहीं ... :) ]

अपूर्व said...

वाह..अनिल साहब की ही बात को आगे बढ़ाते हुए

सागर साहब...सागर साहब...सागर साहब..सागर साहब...सागर साहब...सागर साहब!! ;-)

(वैसे कुछ टेम्पलेट मे भी परिवर्तन लग रहा है..नजर का धोखा है या सच मे चाय का समय हो गया है?..कौन कौन आमंत्रित है उधर?):-)

Sudhir (सुधीर) said...

क्या स्वाद होता है उस पसीने का जो आंसुओं से मिल जाते हैं
अनुपात वहां कितना मायने रखता है ?

बहुत खूब...आपकी इसी अभिव्यक्ति की प्रयोगधर्मिता का तो में कायल हूँ. अच्छा लगा पढ़ कर...

कुश said...

छोटे महीने के बहाने बड़ी बात कर डालते हो.. जानते हो ना मौसम का बदलना कितना जरुरी है.. बाहर भी और ब्लॉग पर भी.. तुम समझ गए लगता है.. खूब समझे हो..

कडुवासच said...

.... सुन्दर रचना !!

Razi Shahab said...

behtareen

संतोष कुमार सिंह said...

सागर जी आपके राय से मैं भी सहमत हू लेकिन नीतीश के मसले पर मैं कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हू जिस मैरेक्ल इगोनोमीग्रोथ को लेकर आप मेरा ध्यान आकृष्ट कराना चाह रहे हैं शायद आप भूल गये इस मसले पर मैं 28नम्बर को
(नीतीश के बैचेनी का राज खुलने लगा हैं )शीर्षक के माध्यम से बहुत कुछ लिख चुका हूं आपकी प्रतिक्रिया भी आयी हैं जरा उस आलेख को फिर से पढे ले सच समझ में आ जायेगा।आपके जानकारी के लिए बिहार के इकोनोमीग्रोथ के बारे में मैंने 28 नम्बर को लिखा हैं 3जनवरी को इकोनोमीटाईम्स लिखा और उसके बाद पांच जनवरी को टाईम्स आंफ इंडिया इस पर लिखा और देखते देखते यह खबड़ अखवार से संपादकीय पृष्ठ पर आ गया लेकिन ग्रोथ के एक पंक्ष को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया जिसमें नीतीश के चार वर्षो के कार्यकाल के दौरान कृषि के क्षेत्र में बिहार का ग्रोथ काफी कम हुआ हैं।वही चार जनवरी को पीटीआई ने सीएसओ के चीफ के हवाले से खबड़ चलाया था कि यह आकड़ा बिहार सरकार का हैं और इस आकड़े की सत्यता की जांच मैंने नही किया दुर्भाग्य से पीटीआई के इस रिलीज को किसी अखबार ने नही छापा और नीतीश कुमार का गुणगान शुरु हो गया उस वक्त मैंने अपने चैनल के माध्यम से नीतीश के खेल का भंडाफोड़ कर दिया था तीन दिनों तक इसको लेकर खबड़ दिखाये थे लेकिन कड़ाके की ठंड के कारण ब्लांग पर ये बाते नही लिख पाया था।

Parul kanani said...

kayal ho gayi..

ओम आर्य said...

ये कोई बात है...
कवि कह गया है -४ कहाँ है ??

गौतम राजऋषि said...

फफक कर रोते इस बसंत से मिलने फिर से आ गया...उस दिन ठीक से पढ़ नहीं पाया था।

"भंसा" की ड्योढ़ी का प्रतिमान...उफ़्फ़्फ़! सहेज कर रख लिया है हमने। आजकल नते बिम्ब चुराता फिर रहा हूँ। संभल कर रहना। चाहो तो कापी-राइट करवा लो पहले कहीं प्रिंट करवा कर...ब्लौग में प्रकाशित होना कोई आधार नहीं है स्वामित्व का।
हा! हा!! जस्ट जोकिंग ब्वाय!!! रिलैक्स!!!

एक लाजवाब कविता है दोस्त मेरे। बहुत खूब!

w.webmaster1 said...

bahute badhiya ba ho..

अनूप शुक्ल said...

सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है..


बेहतरीन!

Puja Upadhyay said...

आज की पोस्ट से इधर आई दोबारा...लिंक खुलने के पहले सोच रही थी कौन सा पन्ना खुलेगा...

कविता पढ़ते ही आँखें भर आई...फिर से.
खुदा तुम्हारी लेखनी सलामत रखे सागर.

Anonymous said...

भरी आँख से लिखना। कि होना था ऐसा भी कभी। जिया था इतना भी कुछ।