फफककर रो ही पड़ो अब इस बसंत में,
सबदे हुए कलेजे को ज़रा देर धूप लगा लो,
किसी कोंपल का खिलना देख लो,
या चुपचाप किसी पत्ते का दरख़्त से जुदा होना,
ख्याल ये रहे कि कोई आवाज़ न हो
किसी की नज़र न पड़े
एक फूल ही तोड़ लो सरसों का, इस मौसिम में
कारण जान लो कि क्यों
हर शाम आसमान के किनारे सोना पिघलता जाता है,
पल्लू का एक टुकड़ा दांत से दबा कर
भंसा कि ड्योढ़ी पर ही क्यों बैठी रहती है 'वो'
क्या स्वाद होता है उस पसीने का जो आंसुओं से मिल जाते हैं
अनुपात वहां कितना मायने रखता है ?
जिस वेग से बहती है नदी भादो में...
लबालब...
आंसू वैसे ही अब-डब रहता है न आखों में
बाँध दिल पर अगर नहीं होता है तो
क्यों साकार हो जाता है मंज़र
कुछ भी कर लो;
याद रखना पर कि
सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है...
33 टिप्पणियाँ:
achhi rachna/
हर शाम आसमान के किनारे सोना पिघल जाता है
पल्लू का एक टुकड़ा दांत से दबा कर
भंसा कि ड्योढ़ी पर ही क्यों बैठी रहती है 'वो'
क्या स्वाद होता है उस पसीने का
जो आंसुओं से मिल जाते हैं ....
कुछ ऐसे ही अनसुलझे जवाब माँगत् है आपकी रचना हमेशा ही .......... और उत्तर की तलाश में घूमती हुई रचना कुछ अंजाने से मोड़ पर च्ड जाती है .......... जहाँ याद रखना आसान नही होता kyon ........
सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है..
achchhee kavita. antim do panktiyon mein chhupa hai kavitadhan.
बहुत अच्छी लगी, ऐसी अनुभुति जो मन में गहरी उतर गई।
सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है..
और कवि भी कभी-कभी कह पाता है ऐसी कविता...
जाने कैसी रोशनी से लिखा है की हर लफ्ज़ में उजाला सा बिखरा है, शायद कहीं कोई खुदा है जो तुम्हारी दवात में अपनी उँगलियाँ डुबो देता है...जब लिखते हो जैसे मरहम सा लग जाता है जख्मों पर. ऐसी नेमत किसी कवि को ही देता है खुदा. दुआओं सा लिखा है मेरे दोस्त...सच कहते हो "सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है..."
लो आज ही तो तुमसे बात हुई...तारीफ़ से इतने कुप्प्पे हो गये हो... :-) मैं तो आया था फिर से उसी कविता को फिर से पढ़ने...बोनस?
पूजा की बातें मेरी भी टिप्पणी मानी जाये फिलहाल...आता हूं फिर से।
इस छोटी सी कविता में बड़ी सघनता है..इस वसंत के पार बहुत लम्बा है जीवन...इस लिए ज़रा देर जितना ही है समय.
अच्छी कविता और समेटने के लिए 'कविताधन' भी.
सागर साहब...सागर साहब...सागर साहब
यह कवि मन भी अजब गजब बाते कर जाता है पढ़ते ही दिल हो उठता है खिलते बसंत में विरह मन सा ...और जब तक आत्मसत इन में खुद को करके डूबने को होता है तभी यह कवि जैसे झंझोर के उठा देता है यह कह कर ...सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते....कमाल है ...शुक्रिया
निखरती ही जा रही है तुम्हारी कलम
ख़ूब सारी शुभकामनायें
हां मौसिम को मौसम होना चाहिये था शायद्…
बढ़िया ..बहुत बढ़िया है ...kavi kahta rahe
इस छोटे महीने/बसंत में रोना..रोने का मन हो आना ...सुन्दर बात कही
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इस बार मूड कुछ जुदा सा है.....क्रांतिकारी कवि थोडा चुप है ..
ख्याल ये रहे कि कोई आवाज़ न हो.
एक फूल भी तोड़ते वक़्त सरसों का ,
जैसे फूल को पता न चले के उसे तोडा गया है.
awesome
उफ़..कवि यह क्या कह गया...
और किस अंदाज़ में कह गया...
एक और बेहतर कविता....
कुछ भी कर लो;
याद रखना पर कि
सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है...
खूब कह रहा है कवि हर बार ... आपकी कविताओं से गुजरना...
awesome ....
पिछली पोस्ट पर दाल चुका अपनी टीप
को थोडा चुकते हुए देख रहा हूँ यहाँ !
यहाँ तो लट्टू हूँ ---
'' सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है... '' आभार ,,,
सॉरी --- दाल == डाल माना जाय , जनाब !
[ मेरी टीप में ही , अन्यत्र नहीं ... :) ]
वाह..अनिल साहब की ही बात को आगे बढ़ाते हुए
सागर साहब...सागर साहब...सागर साहब..सागर साहब...सागर साहब...सागर साहब!! ;-)
(वैसे कुछ टेम्पलेट मे भी परिवर्तन लग रहा है..नजर का धोखा है या सच मे चाय का समय हो गया है?..कौन कौन आमंत्रित है उधर?):-)
क्या स्वाद होता है उस पसीने का जो आंसुओं से मिल जाते हैं
अनुपात वहां कितना मायने रखता है ?
बहुत खूब...आपकी इसी अभिव्यक्ति की प्रयोगधर्मिता का तो में कायल हूँ. अच्छा लगा पढ़ कर...
छोटे महीने के बहाने बड़ी बात कर डालते हो.. जानते हो ना मौसम का बदलना कितना जरुरी है.. बाहर भी और ब्लॉग पर भी.. तुम समझ गए लगता है.. खूब समझे हो..
.... सुन्दर रचना !!
behtareen
सागर जी आपके राय से मैं भी सहमत हू लेकिन नीतीश के मसले पर मैं कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हू जिस मैरेक्ल इगोनोमीग्रोथ को लेकर आप मेरा ध्यान आकृष्ट कराना चाह रहे हैं शायद आप भूल गये इस मसले पर मैं 28नम्बर को
(नीतीश के बैचेनी का राज खुलने लगा हैं )शीर्षक के माध्यम से बहुत कुछ लिख चुका हूं आपकी प्रतिक्रिया भी आयी हैं जरा उस आलेख को फिर से पढे ले सच समझ में आ जायेगा।आपके जानकारी के लिए बिहार के इकोनोमीग्रोथ के बारे में मैंने 28 नम्बर को लिखा हैं 3जनवरी को इकोनोमीटाईम्स लिखा और उसके बाद पांच जनवरी को टाईम्स आंफ इंडिया इस पर लिखा और देखते देखते यह खबड़ अखवार से संपादकीय पृष्ठ पर आ गया लेकिन ग्रोथ के एक पंक्ष को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया जिसमें नीतीश के चार वर्षो के कार्यकाल के दौरान कृषि के क्षेत्र में बिहार का ग्रोथ काफी कम हुआ हैं।वही चार जनवरी को पीटीआई ने सीएसओ के चीफ के हवाले से खबड़ चलाया था कि यह आकड़ा बिहार सरकार का हैं और इस आकड़े की सत्यता की जांच मैंने नही किया दुर्भाग्य से पीटीआई के इस रिलीज को किसी अखबार ने नही छापा और नीतीश कुमार का गुणगान शुरु हो गया उस वक्त मैंने अपने चैनल के माध्यम से नीतीश के खेल का भंडाफोड़ कर दिया था तीन दिनों तक इसको लेकर खबड़ दिखाये थे लेकिन कड़ाके की ठंड के कारण ब्लांग पर ये बाते नही लिख पाया था।
kayal ho gayi..
ये कोई बात है...
कवि कह गया है -४ कहाँ है ??
फफक कर रोते इस बसंत से मिलने फिर से आ गया...उस दिन ठीक से पढ़ नहीं पाया था।
"भंसा" की ड्योढ़ी का प्रतिमान...उफ़्फ़्फ़! सहेज कर रख लिया है हमने। आजकल नते बिम्ब चुराता फिर रहा हूँ। संभल कर रहना। चाहो तो कापी-राइट करवा लो पहले कहीं प्रिंट करवा कर...ब्लौग में प्रकाशित होना कोई आधार नहीं है स्वामित्व का।
हा! हा!! जस्ट जोकिंग ब्वाय!!! रिलैक्स!!!
एक लाजवाब कविता है दोस्त मेरे। बहुत खूब!
bahute badhiya ba ho..
सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है..
बेहतरीन!
आज की पोस्ट से इधर आई दोबारा...लिंक खुलने के पहले सोच रही थी कौन सा पन्ना खुलेगा...
कविता पढ़ते ही आँखें भर आई...फिर से.
खुदा तुम्हारी लेखनी सलामत रखे सागर.
भरी आँख से लिखना। कि होना था ऐसा भी कभी। जिया था इतना भी कुछ।
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