खौफ़


सोचता हूँ...
एक स्तम्भ बनवा दूँ शहर में!

जहाँ सारी सभ्यताएं अपनी नष्ट होने का विलाप
किया करेंगी
बुद्दिजीवी नरमुंड, हो-हो करेंगे,
वेश्याएं गिटार बजा कर रिझायेंगी हमें;
करेंगी प्रेम में गिरफ्तार,
समंदरी आका उछालेंगे हवा में जुमले,
एक भगदड़ मचेगा
नहीं छलछलायेंगी किसी की आँखें

निर्भीक शहरवासी दफ्तर के बाद
घर जाने को नहीं होंगे उत्साहित
रूह सहवास करेगी दोपहर में
पिता कर लेगा कलेजा ठंडा
माँ कुढ़ना भूल जायेगी
धर्मग्रन्थ पढने पर फतवा होगा
कवितायेँ सच मान ली जाएँगी
लोग सो जाया करेंगे इसे सुनकर
कामचोरों को पुरस्कृत किया जायेगा
कलमकार को भी इसी स्तम्भ पर सर पटक कर मरना होगा.

दोनों सलोने हाथ नहीं होंगे व्याकुल
गोद में आने को
ख्वाहिशों की लहरों को लकवा मार जायेगा
पीर की मज़ार का रास्ता किधर है
बिलबिलाकर सुरंग में घुसते हुए पूछेंगे
आदमी शक्लें!!!

चौपाल लगा करेगी
हुम-हुम करती हवा घुमड़ेगी
उठ्ठेगा भंवर इसी स्तम्भ की जड़ से
धड़ तलक
लील लेगा क्षितिज अनंत

कब्रों से निकलकर लाशें
अपने उपलब्धियों का इनाम पाएंगे
जब कूल्हे गवाही देंगे रिश्तों में, वफाओं के
जब प्यासी आँखों के होंठ शराब मांगेगी
औ'
हम चूल्हे से एक अधजली जवालन निकालकर
शराब में हुडदंग मचा देंगे
ढोलक की थाप पर पढ़ी जाएँगी मर्सिया
और आवाम भोर की अगुआई करेंगे बाहें फैलाकर
तो
बाहें मरोड़ देंगे उसकी

28 टिप्पणियाँ:

रंजू भाटिया said...

सचमुच बड़ा खौफनाक मंजर है यह ..

दिगम्बर नासवा said...

सोचता हूँ...
एक स्तम्भ बनवा दूँ शहर में ...

SHAYAD STAMBH PRATEEK HOTE HAIN SADI KE ... KOI ITIHAAS LIPTA HOTA HAI USKE CHAARON TARAF ... AISE HI SADI KE KHOF KO RACHA HAI AAPNE APNI RACHNA KO ...

हरकीरत ' हीर' said...

कब्रों से निकलकर लाशें
अपने उपलब्धियों का इनाम पाएंगे
जब कूल्हे गवाही देंगे रिश्तों में, वफाओं के
जब प्यासी आँखों के होंठ शराब मांगेगी
औ'
हम चूल्हे से एक अधजली जवालन निकालकर
शराब में हुडदंग मचा देंगे
ढोलक की थाप पर पढ़ी जाएँगी मर्सिया
और आवाम भोर की अगुआई करेंगे बाहें फैलाकर
तो
बाहें मरोड़ देंगे उसकी

सुभानाल्लाह .....सागर जी अब सोचिये मत बना ही डालिए ये स्तंभ.....!!

नीरज गोस्वामी said...

क्या कहूँ...शब्द नहीं मिल रहे...दिल हिला देने वाली कविता...

नीरज

अपूर्व said...

कमाल है..अभी तीन दिन पहले ही कुमार विकल जी की एक लौह-तप्त कविता गर्म सलाखों सी छू गयी थी जेहन को..ऐसी ही...जिसे खोज कर यहाँ पर चेपने का लोभ संवरण नही कर पा रहा हूँ

युद्ध

एक शब्द—

भयावह बिंबों का स्रोत

जो मैंने—

अपने शब्द—कोश से काट दिया था

आज हवा में

सायरन की आवाज़ों ने लुढ़का दिया है.


युद्ध… .

अख़बार बेचने वाला लड़का चिल्लाता है—

—पिकासो नई गुएर्निका बनाएँगे

पाल राब्सन सैनिक—शिविरों में

शोक—गीत गाएँगे—

लाशों के अम्बार पर बिस्मिलाह ख़ाँ—

फौजी धुनें बजाएँगे.

और धीरे—धीरे—

चीज़ों के संदर्भ बदल जाएँगे.

अर्थात—

खेतों में बीज डालने वाले हाथ

नरभक्षी गिद्ध उड़ाएँगे.

अब खेतों से पकी हुई फ़स्लों की गंध नहीं आएगी

बल्कि एक बदबू —सी उठकर

नगरों—ग्रामों

गली—मुहल्लों

घर—आँगन

देहरी—दरवाज़ों तक फैल जाएगी.

बदबू…

मेरे तुतलाते बच्चे ने पहला शब्द सीखा है—

और उसके होंठों से

दूध की बोतल फिसल गई है.


युद्ध —

एक शब्द…

जो मैने—

अपने शब्द-कोश से काट दिया था

मेरे बच्चे के शब्द-कोश के—

प्रथम शब्द का मूल स्रोत है.

अपूर्व said...

प्रतीक गढ़ने मे तो आप उस्ताद हैं मानो..

पीर की मज़ार का रास्ता किधर है
बिलबिलाकर सुरंग में घुसते हुए पूछेंगे
आदमी शक्लें!!!

हाँ कही-कही स्त्रीलिंग/पुल्लिंग का लफड़ा हो जाता है आपकी कविता मे..देख लेना...वरना स्त्री/पु्रुष-विमर्श वाले न घेर लें आपको..जेंडर इश्यू को ले कर ;-)

के सी said...

ये कविता पर कमेन्ट नहीं है एक दोस्त को कही गयी सीधी सी बात है :
पहले वाली कविता आज ही पढी थी दो बार, बहुत आनंद आया मैं भी ऐसी ही कविता का दीवाना हूँ ये बताता उससे पहले एक नयी सौगात आ गयी है इसे पढ़ा नहीं है. पहले वाली कविता में आखिरी दो पंक्तियाँ क्यों थी उसके बारे में सोच रहा हूँ अभी...

Dr. Shreesh K. Pathak said...

सागर साहब कुछ लोगों की कवितायेँ पुनः-पुनः पढ़ता हूँ..जैसे आपकी..कि कहीं और कुछ लगा हुआ छूट ना रहा हो...

........जब कूल्हे गवाही देंगे रिश्तों में, वफाओं के
जब प्यासी आँखों के होंठ शराब मांगेगी
औ'
हम चूल्हे से एक अधजली जवालन निकालकर
शराब में हुडदंग मचा देंगे .....
.......
......
पंक्तियाँ तो सारी ही उद्धृत कर देनी चाहिए पर...
सागर साहब....मै तो इम्प्रेस हो गया हूँ आपकी "आलसी" लेखनी से....

Udan Tashtari said...

झकझोरती रचना...तह तक पहुँचने के लिए अभी कई बार पढ़ना पड़ेगा.

mehek said...

dil dahal sa gaya ,nishabd bana gayi rachana.aur bahut kuch sochne par majboor kar gayi.shayad hame apne aap ko sudhar lena chahiye,varna ye manzar haqiqat ban jayega.

रवि कुमार, रावतभाटा said...

यह कविता तो भई वाकई...
बार-बार का पढा जाना मांगती है...

ह्रदयंगम होने के लिए...

अर्कजेश said...

सम्‍मोहक । गहरी चोट करता है ।
कई बार पढने का मन करता है ।

सोचता हूँ एक स्‍तंभ बनवा दूँ ....

anuradha srivastav said...

सोचती हूं मनन करने में जब सफल हो जांऊगी तब विचार अभिव्यक्ति की तौर पर रख पांऊगीं।

ओम आर्य said...

मुझे ख़ुशी है कि सागर की सीपियों से लगातार मोती मिल रहे हैं मुझे...एक और नायाब मोती फिर से

दर्पण साह said...

masterpiece !!
waapis aata hoon...
ek baar main ek hi kafi hai...

waise phir kahoon abhi to 'Lalsal' ke apnatv main hi khoya hoon...

के सी said...

फिर से पढ़ा है
कविता भीतर तक, शब्द शब्द चली आती है. पता नहीं क्यों कुछ असर कभी जाते ही नहीं जैसे पिछली कविता मुझे बुला ले जाती है हर बार.

के सी said...

फिर से पढ़ा है
कविता भीतर तक, शब्द शब्द चली आती है. पता नहीं क्यों कुछ असर कभी जाते ही नहीं जैसे पिछली कविता मुझे बुला ले जाती है हर बार.

sanjay vyas said...

बिलकुल नए तेवर के साथ आई है कविता.
'वेश्याओं का गिटार बजाना'जैसे रूपक इसे विश्व-कविता से जोड़तें हैं.पर कहीं कहीं अनावश्यक मुखरता है..

भीतर एक कोलाहल भरे वेग से प्रवेश करती है.

गौतम राजऋषि said...

ये अपूर्व भी ना...तुम्हारी कविता के जादू में लिपटा कमेंट-बक्से तक पहुंचा तो विकल सब की इस कविता को पढ़वा कर उसने दूसरा ही जादू फेर....।

...तो वापस गया पढ़ने इस "खौफ़" के मंजर को।
चंद अनूठे बिम्ब इस कविता को असीम ऊंचाइयों पर ले जाते हैं। संजय व्यास जी जिसे अनावश्यक मुखरता की संज्ञा दे रहे हैं, मैं उन्हें अनिवार्य उद्‍घोष कहूँगा।

कब से सोच रहा हूँ कि अपने ब्लौग पर कुछ पसंदीदा कविताओं का एक स्थायी लिंक लगा के रखूं साइड-बार में। जब भी करूंगा तुम्हारी ये कविता यकीनन उसमें रखूंगा...

और हाँ, तुम्हारी मैथिली ने मन मोह लिया। "तुम" लिख रहा हूं, छोटे हो ना मुझसे।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

aapka bahut bahut dhanyawaad.....

abhi aapka poora blog dekha bahut achcha laga.... ab dastak deta rahunga...

कुश said...

हो सकता है तुमने ये दिल हिलाने के लिए लिखी है.. पर इसने तो क्या क्या हिला दिया कि मैं बता नहीं सकता.. पियूष मिश्रा का शहर हमारा सो रियो थो याद आ गया.. जितनी कशिश उसमे थी उतनी ही इसमें है.. वेश्याओ के गिटार बजाने पे नंबर ले गए तुम..

डॉ .अनुराग said...

पिछले दो सालो में ब्लॉग पर जितनी भी कविताये पढ़ी है .उनमे से अगर दस बेस्ट चुननी हो .तो निसंदेह एक मै ये चूनुगा.......बाकी अपूर्व ने सब कुछ कह दिया है....
ittifaq se aaj hi face book pe sahir ka likha ."jinhe naaz hai hind par dala hai.."
ek doosra version andhero ka

Anonymous said...

Punjabi Puttar lagde ho...

Paanchon aaboon ka
Jaadu hai tumhaare Saagar me...
Un sab dariyaaon ka
Jo anaam rishte hokar
riste hain
mere Himaalaya se
aur kabhi kabhi...
meri seene se bhi...

Ye mulaakaat rang laayegi...
Ye lamha ghazab dhaayega...

Jeete raho...
Te lammiyaan umraan...

Love U...

Snowa Borno

Anonymous said...

Ab tak ham yehi gaate rah gaye...
"Koi saagar dil ko bahlaata nahin..."

Aaj intizaar khatm hua...
Snowa theek hi kahti hai...
Saagar ya Suraahi bhar nahin ho...
Chhalakta paimaana bhar nahin ho...
Samandar ho...

Tumhari lahron ko
Hamare Himalay ka sneh-Salaam!

Jab bhi zara si gardan jhukaaoge
Hame apne seene me
dhadakta paaoge...

Hamse bahut chhote ho...
magar yaar...
Pairi pauna...

Tumhen tumhara sahi Aashiana
jaldi hi milega...

Tusi great ho...
Kismat tumhare kadam choomne ko bekaraar hai...
Barkhurdaar...

Sainny Ashesh

Chandratal se Apratyaksha said...

In dono paglon ke kareeb mai bhi batha tha...

Lay hi nahin, pralay ho yaar...
Tumse milne ko jee karta re...baaba...

Khuda kare ki kayaamat ho...
Aur...
Too aaye...

Ham intezar karenge...

Samandar

Anonymous said...

Saagar, roman hindi se seedhe dewnagri hindi kaise banti hai?
Tumse baat toh ki, magar alfaaz me wo jaan na jaa saki.
Kuchh karo...
Yahaa kisi se madad nahin mil payi.

Snowa.borno@gmail.com

padmja sharma said...

सागर
संवेदनशील मन के ही ये हाल होते हैं , कभी कभी , जीवन की विसंगतियाँ देखकर .

अनिल कान्त said...

ये हीरा अभी तक हमसे बचा हुआ था ...