इजाज़त हो तो...
एक चुटकी लाली
तुम्हारे रुखसारों में घोल दूं...
शहद मिला दूं
लरज़ते लबों से झरते अशआरों में !
जान-बूझ कर गिरा दूं-
कुछ सामान
कई ख्याल जगा लूं...
तुम्हारा पल्लू, तुम्हारी कमर में खोंस दूं,
उन मछलियों को तड़पा दूं,
नम रेतों पर जो दम तोड़ती है
तुम्हारे बदन की तरह
रसोई के बर्तनों में चूड़ियों की खनक टांक दूं
परदों में तुम्हारी तुम्हारे ऐड़ियों की ऊंचाई लगा दूं
या कि
आंगन में तुम्हारे पायलों की छनक जगा दूं
नीली रोशनी में,
तुम्हारे बदन की यकबयक सारी गिरहें खोल दूं
इजाज़त हो तो...
जानता हूँ;
ऐसे काम बिना इजाज़त किये जाते हैं
पर आठ बरस बाद;
वक़्त की शर्तें बदल भी तो जाती हैं.
16 टिप्पणियाँ:
पर आठ बरस बाद;
वक़्त की शर्तें बदल भी तो जाती हैं.
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बद्ली हुई शर्तें और इजाजत की दरकार
अब तो शायद बन जायेगी आपकी सरकार
बहुत नर्म लगे एहसासो के शब्द. अनुभूतियाँ छू छू कर जा रही है.
वाह आलसी जी.....................
आप तो आलस्य में ही इतने काम करने को उतारू हैं
आलस्य त्याग दिया तो क्या गज़ब ढाओगे ?
बहुत ही अलग
बहुत ही नवेली कविता ...........
अभिनन्दन !
सागर साहब बहुत कुछ अनकहा सा है, मै लिख नहीं सकता....आपको बस इस लेखन के लिए बधाई दे रहा हूँ,....
अपने मनोभावों को शब्दो मे सजा दिया।बहुत बढिया!!
जो भी करते हो, कमाल करते हो
भई जब पढ़ना शुरू किया तो पहले तो ताज्जुब हुआ कि अपने बेफ़िक्र सागर साहब इतने नेक कामों के लिये इजाजत क्यों मांग रहे हैं..वो भी इतनी मासूमी से??..मगर आखिरी तक पहँचते हुए अहवाल खुला कि यहाँ तो कैलेंडर के फेर मे चेंज हुए कमांड्स की बात हो रही है..गोया ऑपरेटिंग सिस्टम अपडेट होने के साथ ही यूजर का एकाउंट एडमिनिस्ट्रेटर से गेस्ट स्टेटस मे बदल दिया गया हो..ऐसा ही है क्या? ;-)
जो भी हो कहर तो ढा दिया..जैसे इन पंक्तियों मे
उन मछलियों को तड़पा दूं,
नम रेतों पर
जो दम तोड़ती है
तुम्हारे बदन की तरह
(कहीं पाश साहब ने भी लिखा था कुछ ऐसा )
या फिर
रसोई के बर्तनों में चूड़ियों की खनक टांक दूं
परदों में तुम्हारी तुम्हारे ऐड़ियों की ऊंचाई लगा दूं
वैसे यह नज्म ’उनको’ पढ़ाई क्या??..आखिर आपने इतने मा्सूम(?) और नेक(?) इरादों का ’उन्हे’ भी पता तो लगे ;-)
(मजाक मे ही कहा है भई)
9 baras baad sagar.......
theek 9 baras baad.
वाह मजेदार अंदाज-ए-बयां बहुत खूब शब्द-चित्र उकेरा है जनाब ;
रसोई के बर्तनों में चूड़ियों की खनक टांक दूं
परदों में तुम्हारी तुम्हारे ऐड़ियों की ऊंचाई लगा दूं
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नीली रोशनी में,तुम्हारे बदन की यकबयक सारी गिरहें खोल दूं
इजाज़त हो तो...
जानता हूँ; ऐसे काम बिना इजाज़त किये जाते हैं
पर आठ बरस बाद;वक़्त की शर्तें बदल भी तो जाती हैं.
साधू!!!साधू!!!
आजकल रतजगे नहीं होते.. क्यों मियां ?
भाई क्या खूब लिखा है...वाह...
नीरज
waah adbhut aath baras baad waqt ki sharte badal bhi jati hain
'वो अमावस नौ बरस लम्बी थी' और 'ये आठ बरस लम्बी है'
ये हमारे मन की गिरहें हैं जो यकबयक सारी गिरहें खोलने के लिए इजाज़त मांगती है...वर्ना वक्त की औकात क्या है...
आपने कितने दिलों पे फंदे डाल दिए एक आखिरी पंक्ति में....अनुमान जरा कम होगा आपको
क्या बात है सागर साब...भई क्या बात है। अनूठा अंदाज़ है "परदों में तुम्हारी तुम्हारे ऐड़ियों की ऊंचाई लगा दूं..." अरे वाह-वाह भाई वाह वाह!!!
..और आठ बरस बाद वाली बात की अदा तो कुछ इतनी क्यूट है कि क्या कहें...
kya baat kah di bhai aapne..
ek ek pankti shandaar.. kitne hi bhaav liye huye..
aur specially...
जानता हूँ;
ऐसे काम बिना इजाज़त किये जाते हैं
पर आठ बरस बाद;
वक़्त की शर्तें बदल भी तो जाती हैं.
maza aa gaya padh kar..
फिर-फिर आया इसको पढ़ने..कितनी बार..और हर बार आपकी इजाजत ले कर कत्ल कर देने और कत्ल हो जाने की दिलफ़िगार इल्तजा कितने दिलों पर इल्जाम बन कर लिपट गयी है देख रहा हूँ..यहाँ तो क्या करें हिम्मत तक नही होती ऐसा कुछ कह पाने की ;-)
बेहतरीन कविता...
प्रेम को स्त्री की हर पहुंच में खोजती हुई...
उसकी सचेत उपस्थिति को टटोलती हुई...
क्या खूब बिंब उकेरे हैं इस हेतु...
कल्पनाओं की उड़ानों के बरअक्स क्या ज़मीन खड़ी की है आपने...
amazing ...
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