ख़ुद से बातें;
दिल बहुत ग़मज़दा रहता है,
ख़ुद से बड़ा खफा रहता है।
बाशिंदे तो कब के दहलीज़ लाँघ चुके,
फिर, उखड़ी चौखटों पर क्यों चिराग जलता है।
झुर्रियों वाले चेहरों की बात जो ना मानी मैंने,
रूह जिस्म से खफा रहता है।
आग का डर था या आग मेरे अन्दर था,
सहमता सा पॉव लिए दीवाना घूमता है
जीने की गुनाह की है जब से 'सागर',
जेहन हर वक्त कलम को ढूंढ़ता है।
--- सागर
5 टिप्पणियाँ:
आग का डर था या आग मेरे अन्दर था,
सहमता सा पॉव लिए दीवाना घूमता है
bahut achhe dost...
Bahut aacha hai dear.
kosis karo aur aacha likh sakte ho
Best of luck.
Bahut aacha hai dear.
kosis karo aur aacha likh sakte ho
Best of luck.
बाशिंदे तो कब के दहलीज़ लाँघ चुके,
फिर, उखड़ी चौखटों पर क्यों चिराग जलता है।
झुर्रियों वाले चेहरों की बात जो ना मानी मैंने,
रूह जिस्म से खफा रहता है।
जीने की गुनाह की है जब से 'सागर',
जेहन हर वक्त कलम को ढूंढ़ता है।
बहुत सुन्दर भाव हैं, बधाई।
namaskar mitr,
main bahut der se aapki kavitayen padh raha hoon .. aap bahut accha lihte hai .. man ko chooti hui bhaavnaye shabd chitr ban jaate hai .. ye kavita mujhe bahut acchi lagi ..khud si hi baate karna mera shagl hai .. aur sach kahun to mera main hi mera asabse accha dost hai ..
badhai sweekar karen
dhanywad,
vijay
pls read my new poem :
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/05/blog-post_18.html
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