उधार

फाख्ता की तरह उड़ती थी तुम

गिलहरी बनती थी स्टेज पर


शंख

बजाने के लिए

जितनी

साँस और शिद्दत की जरुरत होती है

चूमती थी ऐसे मौके पाकर



उधार लिए बैठा हूँ...

वो सब कुछ

अपना क़र्ज़ वापस ले


उन पंखो के हवा अब भी लगती है।

कान कुतरे हुए हैं मेरे

साँस रुकी जाती है मेरी


...ब्याज नहीं है मेरे पास.

4 टिप्पणियाँ:

हरकीरत ' हीर' said...

अपना क़र्ज़ वापस ले लो
उन पंखो के हवा अब भी लगती है।
कान कुतरे हुए हैं मेरे
साँस रुकी जाती है मेरी
ब्याज नहीं है मेरे पास.

kuch alag hat kar...!!

L.Goswami said...

सुन्दर कविता ..भावपूर्ण !!

कुश said...

excellent!! really

रंजू भाटिया said...

ब्याज नहीं है मेरे पास......डूब गए जी सागर के लफ़्ज़ों में ...यह चुरा ली है मैंने ..शुक्रिया