आबिदा को सुनता हूँ तो मुझे कुछ हो जाता है.
बिस्तर पर पड़ा होता हूँ मगर सुदूर अंचल की यात्रा हो जाती है
मन हिचकोले खाता है और लगता है
उबड़-खाबड़ सड़क पर किसी बैलगाड़ी में सवार हूँ
पहिये रास्तों की गहराई से लड़ रहे हैं.
कुछ महिलायें जिस पर लोकगीत गा रही हैं
जैसे पानी भरे घड़े को पानी में डूबोया जाता है
आबिदा को सुनता हूँ तो मुझे कुछ हो जाता है.
आबिदा की आवाज़ मुझे
अपने ही परिवार में इक बिन ब्याही मौसी की याद दिलाती है
जो अपने धड़ को रखती है इस तरह चाक-पैबंद कि
कई बार उसके मर्द होने का अंदेशा होता है.
उसके छाती से दूध नहीं उतरने का दर्द
आबिदा की आवाज़ में ढल कर उतर आया है.
मेरे तकलीफों की आलमारी में
कई दर्द बिना इस्त्री किये रखे होने से
ज्यादा जगह घेरते हैं
ज्यादा जगह घेरते हैं
आबिदा की आवाज़ सबको मुलायम तहदार बना सलीके से लगा देती है
मेरे अन्दर और दर्द भरने की जगह बनती जाती है.
उनकी आवाज़ मन के सूने रेगिस्तान में
हल का फाल धसेड़ते हुए जाती है
एक अमिट लकीर बन उनकी आवाज़
आपाधापी में एक लंगड़ डालती है.
दिल टूटने की आवाज़ जो मैं भूल गया था
उनकी आवाज़ उसकी छायाप्रति है
आबिदा मिलन में छुपे विरह का गीत गाती है
सीले पड़े माचिस को इश्क से सुलगाती हैं
उनकी हूक सुन घर छोड़ लापता होने का मन होता है
चिठ्ठियों पर पता लिखते लिखते जैसे कोई खो जाता है
आबिदा को सुनता हूँ तो मुझे कुछ हो जाता है.
7 टिप्पणियाँ:
लेखनी की लय लौटती दिख रही है... ख़ुदा लेखनी को ये फ़ुर्सत हमेशा बक्शे !
बाकी पोस्ट के बारे में क्या कहें... दर्द को भी ख़ूबसूरत बना दिया... आह आबिदा !!!
मेरे तकलीफों की आलमारी में
कई दर्द बिना इस्त्री किये रखे होने से ज्यादा जगह घेरते हैं
...और इस दर्द को सलीके से तह करती विशिष्ट आवाज़...
अनूठा है यह शब्द चित्र!
बहुत खूब
सच है..
हमें भी सुनाना था न :)
like ...
बेहतर...
होने का क्या खूब होना है...
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