हम थोक में तो पैदा नहीं हुए थे ना, मेरे बाप !

तुम्हें मौका नहीं मिला वर्ना तुम भी रिश्वत खाते
बोबी में डिम्पल कपाडिया को देख तुमने भी आहें भरी थी.
एक विशेष कोर्ट का सम्मन झेला था
और साठ रुपये घर भेजते थे.
सूचना क्रांति ने एहसास में कोई इजाफा नहीं किया है
(हमपर बीते सारे हालात एक जैसे हैं)

तुम्हें प्यार नहीं मिला इसलिए
तुमने सबको अपने आकाश में समेटने की कोशिश की 
तुम बांह कसते गए और लोग छूटते गए
मानता हूँ, तुम्हारी उँगलियों में ग्रीस नहीं था 
चिकनाई  उनपर ही जमी थी 
(अभाव में पला बेटा कहता है)

तुम पचास पार ढल रहे हो 
और मैं पच्चीस में लबालब हूँ
तुम्हें गिल्ट है नौकरी चले जाने का
मुझे धौंस तुम्हारी देखभाल का 
(अब नौकरीशुदा बेटा दहाड़ता है)

तुम मेरे पेशे से सम्बंधित कोई खबर नहीं हो 
जिसे मैं बार-बार रीवाइज़ करूँगा
सीधी सी बात है; शौकिया तौर पर  मैं 
आम आदमी पर कुछ  कवितायें लिखना चाहता था 
भावुकता और महानता बघारने से बचते हुए
जो आवारगी करते करते पिता होने को अभिशप्त हो जाते हैं.
(हाह ! अकेलापन छुपाने के लिए आदमी क्या नहीं करता है)

हम कितने सुरक्षित थे अपने गोदाम में 
पर तुमने मुझे वहां से निकाल कर 
हाई वे पर चलने वाले ट्रक पर चढ़ा दिया
(जिन पर गुड्स कैरियर लिखा होता है)

हम थोक में तो पैदा नहीं हुए थे ना, मेरे बाप !!! 
(अंतिम चारों लाइन ईश्वर के लिए )

18 टिप्पणियाँ:

रवि कुमार said...

आम आदमी पर कुछ कवितायें लिखना चाहता था
भावुकता और महानता बघारने से बचते हुए...

कमाल है...

प्रवीण पाण्डेय said...

सम्बन्धों की गरिमा इस विशुद्ध आदिम विचार को ढक लेती है।

अजय कुमार झा said...

एकदम से फ़ाडू है सागर भाई ,,का लिखे हो यार

स्वप्निल तिवारी said...

saagar sir.. adbhut kavita hai..... bahut bebaki hai...

आम आदमी पर कुछ कवितायें लिखना चाहता था
भावुकता और महानता बघारने से बचते हुए
जो आवारगी करते करते पिता होने को अभिशप्त हो जाते हैं.
(हाह ! अकेलापन छुपाने के लिए आदमी क्या नहीं करता

ye panktiyana to dimaag hila deti hain...

adbhut rachna ke liye badhai aapko

डिम्पल मल्होत्रा said...

पिता एक चिराग की तरह होते है जो हमें रौशनी जरूर और जरूर देते है.
आस्मां की तरह जिनकी भले शाखाये ना हो पर जिन पर उड़ान भरी जा सकती है.
किसी छायादार दरख्त की तरह.

"लख अपराध करे बहु-भांति ,बहुड़ पिता गल लावे."(आप के तमाम अपराधों के बाद भी वो आप को गलें लगा लेते है क्षमा कर देते है

sonal said...

badhiyaa

डॉ .अनुराग said...

ब्रेकट जान लेवा है ....कई चीजों से भी ज्यादा .मसलन इससे
तुम पचास पार ढल रहे हो
और मैं पच्चीस में लबालब हूँ

या इससे
तुम बांह कसते गए और लोग छूटते गए
मानता हूँ, तुम्हारी उँगलियों में ग्रीस नहीं था
चिकनाई उनपर ही जमी थी
पर इससे नहीं......

सूचना क्रांति ने एहसास में कोई इजाफा नहीं किया है

keep it up.....one of the best read of today .....

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

हम कितने सुरक्षित थे अपने गोदाम में
पर तुमने मुझे वहां से निकाल कर
हाई वे पर चलने वाले ट्रक पर चढ़ा दिया
(जिन पर गुड्स कैरियर लिखा होता है)


हम थोक में तो पैदा नहीं हुए थे ना, मेरे बाप !!!
Bahut khoob ! ek naya andaaj samete rachnaa !

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

"सम्बन्धों की गरिमा इस विशुद्ध आदिम विचार को ढक लेती है।"-प्रवीण जी की पंक्तियां दोहराना चाहुंगा.

वैसे अापकी रचनाअों मे शिकायत का एक नया स्तर देखने को मिला.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

तुम पचास पार ढल रहे हो
और मैं पच्चीस में लबालब हूँ
तुम्हें गिल्ट है नौकरी चले जाने का
मुझे धौंस तुम्हारी देखभाल का

और इस बात का सार दिया ब्रेकिट में ..बहुत बढ़िया प्रस्तुति

crazy devil said...

bahut acche hai..har ek tukde me jaise poora ka poora ehsaas udel dia ho..

रंजना said...

कमेन्ट का अभिप्राय केवल उपस्थिति दर्ज कराना है...

रचना पर कुछ कहूँ,यह मनोवस्था नहीं...

बस ...लाजवाब !!!!

अपूर्व said...

भई कुछ तो रहेम करो..कुछ तो बक्शो बाप जी को..और ईश्वर को भी..ऐसे ही पूरी इज्जत की पुरानी शेरवानी उतारने मे लगे हो..सो कुछ काम उनके बेटों पर भी छोड़ दो..:-)

Alpana Verma said...

बेशक बहुत खूब लिखा है.
एक अलग तेवर /एक अलग अंदाज़..ग्रेट!

"अर्श" said...

आज सुबह दुर्गेश की कहानी जहाज पढ़ी और अब तुम्हे पढ़ रहा हूँ सागर ... शायद इसलिए मैं सागर को पसंद करता हूँ .. गौड ब्लेस यू .


अर्श

mridula pradhan said...

kafi achchi lagi.

Manoj K said...

again awe struck.. ))

vandana khanna said...

आम आदमी पर कुछ कवितायें लिखना चाहता था
भावुकता और महानता बघारने से बचते हुए...u r doing d same