जब हम करीब आकर एक-दूसरे से बातें करते हैं.
किसी समस्याओं को सुलझाने में हमारे नाक मित्रतापूर्ण प्रतिद्वंदी की तरह बगलगीर होते हैं.
मैं रणभूमि में तुम्हारे अनुभव की तलवार से बिजली बन कौंधता हुआ
सबके सिर काट लाता हूँ
और हार जाता हूँ
संकटों से निथारना रहा हो
या बारिश में, पार्क में बेंच के नीचे सो जाना हो
ट्रेन के बाथरूम में सफ़र रहा हो
या कल्पना कि जादुई कालीन पर उड़ना
मैंने प्रेमिका के तरह जिद की
और तुम बियाबान जंगल से ऑर्किड ले आये
प्रथम पुरुष तुम हर रूप में हुए.
मैं मरीज़ बन,
बीते कुछ सालों से तुम्हें स्टेशन पर छोड़ लौट रहा हूँ
यूँ लगता है जैसे किसी हस्पताल से किडनी निकाल सड़क पर लुढका दिया गया हूँ
तुम्हारे हाथों पर इस मौसम ने झुर्रियां उगाई हैं
यह मुझे अपने खेत की याद दिलाता है
जैसे जून के अंतिम सप्ताह में पहली बारिश के बाद की खिली धूप
और मिटटी का भुरभुरा हो जाना
तुम्हें याद तो है,
पर क्या तुम्हें याद रहेगा ?
हद यह है कि तुम भी मेरे से यही सवाल करते हो.
8 टिप्पणियाँ:
पिता पुत्र के बीच का रिश्ता काफी जटिल होता है खासकर इसे माँ बेटे के सम्बन्ध से तौल कर देखें.इस कारण बहुत सी कवितायेँ अंततः पिता का आदर्श रूप सामने लाने का प्रयास भर रह जाती हैं.इस् कविता और पिछली कविता ने इस खास रिश्ते की कुछ और परतें छूने की कोशिश की है.अच्छी लगी कविता सागर.
एक जद्दोजहद होती रहती है इस रिश्ते में प्रथम 25 वर्ष और तब एक बेटा पिता के मर्म को समझ जाता है।
बहुत सुन्दर!
प्रश्नों का समाधान काष्ठ-मौन, निरुत्तर से अलावा सब कुछ वाजिब है.
बहुत अच्छी कविता है सागर…गहरी और मार्मिक…और हां मैं इंतज़ार कर रहा हूं
बहुत ही बढ़िया
कृपया कभी यहाँ भी आये
www.deepti09sharma.blogspot.com
भावपूर्ण..प्रभावी.
ऐसे कैसे लिख लेते हो सागर.....पिता को इस रूप में...सच कहूँ तो आँखें छलक आयीं..
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