महान पच्चीस बरस जी लेने के बाद तबियत से बहुत कुछ कहा जा सकता है.
जैसे सहूलियत से कह सकता हूँ कि
देश, बारहों महीने कुशलता से गाया जाने वाला एक राग है
लोकतन्त्र, फटे हुए कालरों पर कि गई रफ्फू है और
राष्ट्र धुन महज़ रोमांचित होने का जरिया है.
वहीँ ‘आम आदमी’ प्रत्येक योजनाओं का पंच लाइन है.
महसूसते हुए कह सकता हूँ कि
विरह, देह में मौजूद दिल की क्षणिक जरुरत है
जहां पहले ये शर्त बलवती है कि
ये तमाम सुविधाओं के बाद हो
जिसे वक्त-बेवक्त ओढ़ कर खुद को इंसान होने का ढाढस बंधाया जा सके
बेबाकी से कह सकता हूँ कि
सर्वे में कही गई कई बातें गलत हैं
जिन मेहनतकश लोगों के पूजने की शपथ दोहरायी गई है
दरअसल वे मासिक धर्म के पहले दिन के दर्द से गुज़र रहे हैं
अतएव बहिष्कृत हैं.
और हिकारत से कह सकता हूँ कि
कविता, ना अब मेरे लिए वाहवाही की वस्तु है ना बदलाव के आसार
यह बौद्धिक क्षुधाओं कि पूर्ति मात्र बन कर रह गई है.
19 टिप्पणियाँ:
सोचता हूँ शब्द-शब्द चुन लूँ और बनाकर हार तुम्हें पहनाऊँ....तो लगे कि....
कविता, ना अब मेरे लिए वाहवाही की वस्तु है ना बदलाव के आसार
यह बौद्धिक क्षुधाओं कि पूर्ति मात्र बन कर रह गई है.
कविता की भाषा सीधे-सीधे जीवन से उठाए गए शब्दों और व्यंजक मुहावरे से निर्मित हैं।
गीली मिट्टी पर पैरों के निशान!!, “मनोज” पर, ... देखिए ...ना!
वो कहते हैं न...
जिस्म और रूह का रिश्ता भी अजब रिश्ता है,
उम्र भर साथ रहे फिर भी तार्रूफ़ न हुआ ॥
बालिग़ बयान के इर्द गिर्द बहुत कुछ अनएथिकल चल रहा है.
पर जैसे भी हो कविता सुख दे पा रही है.
वैचारिक प्रौढ़ता की शुभकामनायें।
और हिकारत से कह सकता हूँ कि
कविता, ना अब मेरे लिए वाहवाही की वस्तु है ना बदलाव के आसार
यह बौद्धिक क्षुधाओं कि पूर्ति मात्र बन कर रह गई है.
...........वाह !
ये अंतिम कथन की स्वीकारोक्ति आपकी अकेले की नहीं है इसलिए खुद को भी किसी अज्ञात (या शायद ज्ञात ) 'गिल्ट' से ले जाती है...
..लगता है कि ये अंतिम लाइन (कम से कम) मैंने ही लिखी है. और सच मानिए ज़्यादातर लोग इसी वास्ते लिखते हैं. बस आप डेरिंग बाज़ हैं ! कह गये... इसलिए कह गए, नहीं तो कविता तो छोड़ो उसके सरोकार भी छोड़ो उसका सौवां हिस्सा भी...
..खैर ये भी छोड़ो, कौन सुनेगा किसको सुनाएं ! (और वैसे भी, अगर आपके ही शब्दों का मनन करूँ तो, कमेन्ट से कौन सी वाह वाही हो जानी है ?)
ॐ आर्य जी की एक कविता और फिर आपका एक लेख भी पढ़ा था ये कविता आपके उसी बेहतरीन लेख का एक्सटेंशन लगती है :
"कब पलट के ये सोचा की फलाने का जीवन बदल जाएगा, कोई थका हुआ इंसान..."
;)
असल में हो इसका उल्टा भी सकता है, यानि आप लिखते तो सरोकारों के लिए ही हैं, और चाहते हैं की परिवर्तन आयें पर जब नहीं आ पाते तो आप अपने आप को कोस के, गरिया के (अपूर्व से हुई एक फ़ोन - वार्ता शिद्दत से याद आ रही है)...
...पर अंततः इस बात से उबर यूं पता हूँ कि जब सोचता हूँ, कुछ नहीं रह जाना. ये गर्वानुभूति भी नहीं. ईवन कि, दुनियाँ का सबसे बड़ा मायावी सुख (ओर्गेज़म ) भी क्षणिक है. (याद आ रही है सम्भोग से समाधी...)
तो हे प्राणी ! कविता, कहानी, धन, सम्मान, स्वांत सुख, ये सब क्षणिक हैं. बस 'वो' ही टाइम प्रूफ है. (मैंने बात मजाक में कही है और शायद सच न भी हो पर दिल को खुश रखने को 'सागर' ये ख्याल अच्छा है.)
किसी ने आलंबन की बात कही थी. ;)
वही (आलंबन) आजकल सब दर्द की दवा है बन्धु.
इतना तो निश्चित है सागर भाई कि आपकी इस वक्त कि मनः स्थिति को समझ रहा हूँ.
कभी सोचा है नयी सिगरेट जलाते वक्त कि ये वही पुरानी वाली नहीं है?
"दरअसल वे मासिक धर्म....."
बेहतरीन अभिव्यक्ति बधाई !
(चूंकि आपका कविता लिखने का उद्देश्य जान गया हूँ इसलिए सोचा तारीफ़ करते भी चलूं ;) )
क्या आप हिंदी ब्लॉग संकलक हमारीवाणी के सदस्य हैं?
हमारीवाणी पर ब्लॉग पंजीकृत करने की विधि
तो मियां अब ब्याहने लायक हो गए..
झन्नाट लेखन यही होता है प्यारे...
बेबाकी से कह सकता हूँ कि
सर्वे में कही गई कई बातें गलत हैं
जिन मेहनतकश लोगों के पूजने की शपथ दोहरायी गई है
दरअसल वे मासिक धर्म के पहले दिन के दर्द से गुज़र रहे हैं
अतएव बहिष्कृत हैं.
यहां कवि की परदुखकातरता अद्भुत है। उसे उस दर्द का बखूबी एहसास है जिसके बारे मॆं उसने सिर्फ़ ही सुना है।
बधाई!
सागर साहब,
पढ़ लिया,
"यह बौद्धिक क्षुधाओं कि पूर्ति मात्र बन कर रह गई है."
हर रोज कुछ कहा जाए जरुरी तो नहीं...बेआवाज थप्पड़ पर!!
sagar ji..kalam ki dhaar se aisa waar :)
अपने अंदाज़ में...
आईना दिखा गये हैं आप...बेहतर...
ये संक्रामक हो रहा है...इसे रोकना होगा...
"और हिकारत से कह सकता हूँ कि
कविता, ना अब मेरे लिए वाहवाही की वस्तु है ना बदलाव के आसार
यह बौद्धिक क्षुधाओं कि पूर्ति मात्र बन कर रह गई है."
...और हम यहाँ बैठकर कर क्या रहे हैं.. अपनी बौद्धिक क्षुधाओं की पूर्ति ही न? बस अभी थोडी देर पहले ये पंक्तियां पढीं..
"मुझे शब्दों की हिफाजत
अपने तरीके से करनी है और पहली लड़ाई
उस आदमी के खिलाफ लड़नी है
जो शब्दों की अर्थवत्ता को तोड़ता है
और दूसरी उसके विरुद्ध
जो शब्दों की अर्थवत्ता को छोड़ता है।"
शायर तुमसे भी कुछ कहती हों...
मै तो कहे जा रहा हूँ बार-बार ...लिखना खुद की मजबूरी है..ये कवितायें किसी सिलेबस में नही आयेंगी क्यूंकि इनका आलोचक आम आदमी है.! पर क्या इतनी ही संतुष्टि सब पर भारी नही..!
खैर ..पढ़ रहा था जैसे ...बेतरतीब बेडशीट फिर से बिछा रहा होऊं..! तकिया लगाना छोड़ दो सागर ..सोचते-सोचते गर्दन ऐसे ही टेढी हो गई है..
बढिया कविता है सागर । बात तो तुमने सही लिखी है लेकिन मुझे अभी भी कविता से उम्मीद है ।
जैसे सहूलियत से कह सकता हूँ कि
देश, बारहों महीने कुशलता से गाया जाने वाला एक राग है
लोकतन्त्र, फटे हुए कालरों पर कि गई रफ्फू है और
राष्ट्र धुन महज़ रोमांचित होने का जरिया है.
वहीँ ‘आम आदमी’ प्रत्येक योजनाओं का पंच लाइन है.
वाह..बहुत दिनों बाद एक जानदार कविता पढने को मिली. आक्रोश और दर्द का मिला जुला रूप नज़र आता है इसमें!
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कविता, ना अब मेरे लिए वाहवाही की वस्तु है ना बदलाव के आसार
यह बौद्धिक क्षुधाओं कि पूर्ति मात्र बन कर रह गई है.
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You seem to be a brutally honest person !
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