उधेड़बुन में तपता आदमी
तकता है-
कमरे का शांत आकाश, तलाशता है-
भारहीनता का अनुभव,
घुटा हुआ सन्नाटा,
खोया हुआ स्पर्श
औ' दौड़ता हुआ खून.
जलावन जब जलने को होती
नहीं बचती चूल्हे में राख भी
हम कुरेदते थे पकाने को मांस
अंगीठी को हँसते देखे जमाना हो आया
पीर की मज़ार पर बाँधा किये
मन्नत के धागे
और उठ कर खामोशी से
नाप डाले कई किलोमीटर
बस स्टेंड अब गली के मोड़ पर है
हम चलना भूल गये.
इन्ही दिनों भूख सिपाही बनकर
खोंचता था डंडा,
सांत्वना देती थी माँ,
दिलासे देती बहनें,
और उकताए हुए हम
पंचायत के फरमान सुनते थे
हर लिखा पढकर लगता है
यह वो नहीं था जिसकी हमें तलाश थी
कवि, मन का मर्म पहचानने में
असफल हो रहा है.
अब ना आते हैं राष्ट्रवाद के सपने,
ना उत्तेजित होते हैं हम
बगैर प्रेम किये ही देखते हैं धोखे के अनंत रूप
कंक्रीट के जंगल में,
उखड़ते पलस्तर की खुशबू नहीं आती
पसीना भी मेहनतकश जैसा नहीं लहलहाता
हमें खाए जा रहा है रात-दिन यह सवाल
हमारी रगों में अब आखिर बहता क्या है !
24 टिप्पणियाँ:
वाह! बहुत सुन्दर प्रस्तुति, आज आपकी कई रचनाएँ पढ़ी, कुछ अलग हटकर हैं आपकी रचनाएँ, बहुत अच्छा लगा पढ़कर!
हमारी रगों में बहता क्या है........मामूली सवाल नहीं है ये.....एक ऐसा सवाल जो हर स्वाभिमानी आदमी को खोखला कर देता है......तिस पर आकी कविता ......उफ़
क्या कहने.....भी वाह
पीर की मज़ार पर बाँधा किये
मन्नत के धागे
और उठ कर खामोशी से
नाप डाले कई किलोमीटर
बस स्टेंड अब गली के मोड़ पर है
हम चलना भूल गये
हमें खाए जा रहा है रात-दिन यह सवाल
हमारी रगों में अब आखिर बहता क्या है !
कंक्रीट के जंगल में,
उखड़ते पलस्तर की खुशबू नहीं आती
पसीना भी मेहनतकश जैसा नहीं लहलहाता
चोर सा रिसता रहता है.....
अब ना आते हैं राष्ट्रवाद के सपने,...
ऐसी उधेड़बुन ही आज के इंसान की नियति बन गयी लगती है ....
सोचने को मजबूर करती अच्छी कविता..
o tere ki...solid nazm hai ye to.... sirf ek sawaal jo prtyaksh hai ..iske alwa kai saare sawaal pooch rahi hai ye... behad achhi
इन्ही दिनों भूख सिपाही बनकर
खोंचता था डंडा,
सांत्वना देती थी माँ,
दिलासे देती बहनें,
और उकताए हुए हम
पंचायत के फरमान सुनते थे
-बहुत बेहतरीन टच दिया रचना को...
behtareen rachna sirji...
क्या खूब कहा है...
अंदर झांकने को मजबूर करते शब्द...
और यह पंक्ति तो दिल को छू गई...
‘अंगीठी को हँसते देखे जमाना हो आया...’
क्या बात है ,बहुत बढिया नज़्म
हर लिखा पढकर लगता है
यह वो नहीं था जिसकी हमें तलाश थी
कवि, मन का मर्म पहचानने में
असफल हो रहा है.
-------------' कान्हा ' पर लिखी एक कविता अज्ञेय की है , उसे
ज़रा देखिएगा , वैसे हमें उम्मीद है आप देख ही चुके होंगे !
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यह खंड मुझे प्यारा लगा ---
'' अब ना आते हैं राष्ट्रवाद के सपने,
ना उत्तेजित होते हैं हम
बगैर प्रेम किये ही देखते हैं धोखे के अनंत रूप
कंक्रीट के जंगल में,
उखड़ते पलस्तर की खुशबू नहीं आती
पसीना भी मेहनतकश जैसा नहीं लहलहाता
चोर सा रिसता रहता है.
हमें खाए जा रहा है रात-दिन यह सवाल
हमारी रगों में अब आखिर बहता क्या है ! ''
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कविता मेरी स्थूल बुद्धि की समझ में आ पायी , इसके लिए आभार !
रक्त बहना मौलिक है,
वेग पर भागौलिक है ।
भारहीनता न तलाशे तो क्या करें...दम घुटने को आता है जब छत गिरने लगती है, सीने में घूमने लगता है पंखा, उसका भार क्या जिंदगी के भार से कम लगता है...
लिखा हुआ पढकर पढ़ा हुआ नहीं लगता, क्योंकि कवि पढ़ना नहीं जीना चाहता है. काले अक्षरों से कभी राहत नहीं मिलती है, महसूस नहीं होती है भूख या कि पेट भरने का अहसास भी किताब पढ़ के नहीं आता.
'जब आँख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है' मगर क्या पढ़ के रगों में दौड़ता खून आंसू बन के निकलेगा, मरती हुयी संवेदना का कोई हल होगा, हद से ज्यादा संवेदनशील होने कि कोई सीमा, कोई हद बनायीं जायेगी.
लिखा हुआ बस एक तिलिस्म बनाता चला जाता है, और हम देख कर, छू कर जानते हैं कि ये सच नहीं है...सच को जीने निकल पड़ते हैं किताबों को फेंक फांक कर कहीं.
महसूसते हैं कि जीना कविता लिखने से ज्यादा जरूरी है.
अच्छी कविता है सागर…बस कुछ मात्रा दोष हैं जो खटकते हैं…जैसे
इन्ही दिनों भूख सिपाही बनकर
खोंचता था डंडा
यहाँ 'थी' उचित होगा…
नये जमाने का नया लहू है सागर.. ज्ञानजी को कही कही कहते पाता हू कि हमे एक क्राईसिस की जरूरत है.. अब जैसे इस बात पर यकीन हो चला है कि हम आरामफ़रोश लोगो को एक क्राईसिस की अदद दरकार है जो हमे फ़िर से जगाये.. हो सकता है लहू फ़िर से उफ़ने.. लहू को जामवंत की तरह कोई याद दिलाने वाला चाहिये..
कविता जैसे हमारी आत्मा की कालर पकडकर पूछ रही है.. और मै घिग्घी बांधे सुन रहा हूँ..
आप निःशब्द करना चाहते हैं तो मुझे भी अच्छा लगता है हो जाने में...
कंक्रीट के जंगल में बैठे हम क्या बताएं ? !
क्यों नहीं खाल खोल के देख लिया जाए.. ?
यक़ीनन लेमन में घुली हुई वोदका और दो चार धुए के छल्ले तो होंगे ही..
कंक्रीट के जंगलो का जानवर इंसान ही है प्यारे.. कितना है ये कहना मुमकिन नहीं..!
ये छोटे-छोटे मुख्तलिफ़ पैरा भले ही एक संपूर्ण कविता की शक्ल दे रहे हों, किंतु मेरा पाठक मन इन छोटे पैरा को अलग-अलग कविता मान कर पढ़ने में ज्यादा खुश हो रहा है।
...और तभी ध्यान जाता है आखिरी प्रश्न पर और पाठक मन को उसका जवाब मिल जाता है तत्क्षण!
दुनियादारी के कोकटेल से बना या शायद अपनी किसी प्रयोगशाला में उपजा...वो केमिकल .जिसे इस सदी का लहू कहते है .......
sagar ji...kya khoob keha..
कंक्रीट के जंगल में,
उखड़ते पलस्तर की खुशबू नहीं आती
पसीना भी मेहनतकश जैसा नहीं लहलहाता
चोर सा रिसता रहता है.
हमें खाए जा रहा है रात-दिन यह सवाल
हमारी रगों में अब आखिर बहता क्या है ..
आधुनिक दौर में रागों में और क्या बह सकता है ... मिलावटी लाल रंग सा कुछ ....
आपकी रचनाएँ हमेशा कुछ अलग अंज़ाद में होती हैं ... कुछ अनसुलझे प्रश्न हमेशा ही नज़र आते हैं आपकी लाइनों
jordaar...dhamakedaar
danka baja diya bhai
sunder rachna.
जलावन जब जलने को होती
नहीं बचती चूल्हे में राख भी
हम कुरेदते थे पकाने को मांस
अंगीठी को हँसते देखे जमाना हो आया
भई अब तो यही पंक्तियाँ आपके ब्लॉग के लिये सटीक बैठती हैं..जो किसी परित्यक्ता पत्नी की तरह विवश, विक्षिप्त पड़ा है..आवरण से बाहर आइये और इस प्रश्न का उत्तर दीजिये
हमारी रगों में अब आखिर बहता क्या है !
:-)
कवि कुछ नहीं कर रहा है तब भी इत्ते सारे काम एजेंडा में लगाये है। कुछ करता होता त न जाने क्या जुलुम करता।
बहुत ऊंची-उंची कविता लिखता है कवि।
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