ये ताजी हवा,
यह प्रकृति के विविध रंग,
तितलियों का रसास्वादन करते पंख खोलना और बंद करना
रख लो आँखों में
कमजोर लताओं का आत्मविश्वास से खड़े होना.
उन दिनों के लिए
जब अवसाद घेरे और
मन का अँधेरा करवटें लेने लगे
रोक लो इन हवाओं को
कश बना कर,
दो पल;
उलझी हुई आँत के गलियों में
सिगरेट के धुंए के जैसे
क्योंकि,
बांकी है अभी
जेठ की दुपहरी में
दिन-दहाड़े शहर में खो जाने का डर
औ’
आधी रात में छत से शहंशाह होने का गुमान
बांकी है अभी,
बरसाती पानी से भरा विषैला
भादों का कुआँ बनना ,
लबालब भरते अंगने से
बरामदे में
सांप और बिच्छूओं का चढ़ना...
अंततः,
पूष की रात में
प्लेटफार्म पर ‘छीने गए’ चंद झपकियों में
प्रकृति की विविधता,
‘स्कूली दिनों की देशभक्ति’
और चंद गुलाबी दुपट्टों की
सारगर्भित गर्माहट
यह वसंत है तुम्हारे जीवन का खिलौना,
तुम्हारी प्रेयसी का चुम्बन
यह वसंत है स्तुति-गान
यह वसंत है तुम्हारे महासमर का बिगुल.
20 टिप्पणियाँ:
हाँ पर ये बसंती दिन कितने ज़ल्दी बीत जाते हैं न, किसी भी अच्छे दिनों की तरह.
और छोड़ जाते हैं गर्मी, बरसात और जाड़ों की क्रमशः 'रात्रिकालीन शहंशाही - गुमान', 'सांप और बिच्छु' और 'गुलाबी दुपट्टों की सारगर्भित गर्माहट' (और गर्माहट भी यादों में).
bottoms up ! याद आ रहा है.
Cheers !
सहेज लो फेफड़े में
ये ताजी हवा बसंत की,
जितनी भी मिलती है,
कि अब तक ये फेफड़ा कई परत कोलतारों के कब्जे में है
और इस बसंत के भी जल्दी हीं बूढ़े हो जाने का डर है
रोक लो इन हवाओं को
कश बना कर,
दो पल;
उलझी हुई आँत के गलियों में
सिगरेट के धुंए के जैसे ...
sundar smagam sir :)
बहुत अच्छी कविता।
वाकई कवि खूब कह गया है...
सिगरेट के कशों में...
आंतो की गलियों में छिपी ज़िंदगी से दो चार होते...
बेहतरीन हमेशा की तरह
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है ...
kuch kehna tha...
2nd time aaiya hoon.
गुलाबी दुपट्टों की सारगर्भित गर्माहट....
uffffff...
..kash aapko bata pata ki kewal isi line ne poori poem ko meri chahtei laadli bana diya hai.
kyun aakhir???
...Fir kabhi.
बेहतरीन ...
यह वसंत है स्तुति-गान
यह वसंत है तुम्हारे महासमर का बिगुल
सही है भइया..अरे वसंत भी अब महाभारत का पांचजन्य हो गया..अरे वसंत को तो बख्श देते कुछ वक्त के लिये..’धीर-समीरे-यमुना-तीरे’ की वंशी बना रहने देते...हमारे जैसे हारे जुआरियों की खातिर..और ऊपर देखो दुपट्टे मे कुछ और आंखें भी टंकी हुई हैं ;-)
खैर यह तो मजाक है...और जरूरी भी...वरना इतनी अच्छी और गरिष्ठ कविताओं की डोज पर डोज गले कैसे उतरे..यह भी तो कोई कवि कहे ;-)
अच्छा थोड़ा ’मूड’ सीरियस कर लूँ..तो दोबारा आता हूँ..यह भी वसंत का कसूर ही है..
@Apoorv....
आँखें ही नहीं दिल भी टिका हुआ है....
...और मैं serious हूँ. कोई मजाक नहीं.
:P
पहले तो होली मुबारक़ !
फिर वही बात...
नहीं मानियेगा...
क़त्ल कर के ही छोड़ियेगा |
वसंत का भेरी-गान अच्छा लगा.कुंआरा,पहली बार पढ़ा जैसा.
इस महासमर में वसंत का ये गान लौकिक होते हुए भी मुझ में आश्चर्य जगाता है. मैं जेठ की दुपहरियों का दीवाना इसलिए भी हूँ कि वे मुझे डराती है, मुझमे सिमटे हुए अकेलेपन को चित्रित करती है. इस श्रृंखला की कविताएं पढ़ने का आज ही भाग हुआ है. बधाई स्वीकार करें.
aabhar bhai, aap hamaare yahaan aaye....achcha hi hua..warna aap ki behtar srijnatmakta se main anjaan hi rahta...gunjesh ka aabhaar..hamzabaan par aapka link de raha hun.
चंद शब्दों में कैसे इतना कुछ बांध लेते हैं आप?
कितनी अच्छी कल्प्ना है, बसन्त को सांसों में भर लेने की...
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .
अभी तक बसंत दबा है तुम्हारे यहां किसी किताब में रखी तितली सा। जय हो!
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