नज़रिया अपना गहरा है
शायद सदियों से ठहरा है
सन्नाटे सुनती नहीं दुनिया
बात पक्की है, ज़माना बहरा है
सराबी* पैकर** बिखरे है पानी में
समंदर में भी सेहरा है
नीमबाज़ आखें, तरन्नुम आवाज़, गुदाज़ बाहें
हर बदन में तुम्हारा चेहरा है
रिश्ते तोड़ कर देता है दिलासा
दोस्ती अब अपना गहरा है
हाँ उसी बूँद की तलब है मुझको
तुम्हारे होंठों पर जो शबनम ठहरा है
क्लाइमेक्स की ऐसी उम्मीद नहीं थी
हालात कहाँ - कहाँ से गुज़रा है
खंडहरों पर मकां बना रहे हो ज़ालिम
वहां अब भी उसका पहरा है
छुप-छुप कर क्यों निकलते हो 'सागर'
किस्से झगडा है, क्यों खतरा है ?
कुछ दिन और बहर से खेल 'सागर'
पुराना वोही तेरा रास्ता है!!!!
*मृगतृष्णा **बिम्ब
7 टिप्पणियाँ:
हाँ उसी बूँद की तलब है मुझको
तुम्हारे होंठों पर जो शबनम ठहरा है
ख्वाहिश तो बहुत खूबसूरत है.
रचना भी बहुत सुन्दर
"नज़रिया अपना गहरा है शायद सदियों से ठहरा है"
पहली ही पंक्ति से रिसने लगती हैं बूँदें अमोल , सागर....
हम्म्म्म्म्म्म...
कुछ आज़ाद मिस्रों की तारीफ़ करूँगा बस। मुझे ऐसा क्यों लगता है सागर साब कि आप अपने असली मोती जान-बूझ कर सामने नहीं ला रहे हैं?
कुछ मिस्रे वाकई बहुत अच्छे बन पड़े हैं, जैसे कि "नीमबाज़ आखें, तरन्नुम आवाज़"
लेकिन दोस्ती हमेशा "गहरी" ही होगी!
dosti apni gahri hai
वाकई बहर से खेल ही रहे हैं आप...
और खेल-खेल में क्या खूब बात कह जाते हैं आप...
मैं क्या लिखूं 'सागर' तेरे शेरों पे
गोते जितने लगाओ, लगता उतना हीं गहरा है
दुनिया तुम्हें सलाम जरूर करेगी, तुझमे
छा जाने का माद्दा है, जूनून भी तगड़ा है
सराबी पैकर बिखरे है पानी में
समंदर में भी सेहरा है
क्या लिख डाला भाई..बस पूरी रचना नही पढ़ पाया..यह शेर ही गलती से उलझ गया आँखों मे..अभी पढ़ भी नही पाऊंगा बाकी का..अभी इसी शेर की जुगाली मे रात तमाम हो जायेगी..माशाअल्लाह!!
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