त्योहार के दिन...


त्योहार आते हैं तो सुबह से मन का डोर कहीं खिंचा लगता है.
अन्दर ही अन्दर थोड़ी उदासी रहती है. 
जैसे मज़ार पर भीनी भीनी अगरबत्ती जलती रहती है.
कोई अन्दर से थपकी दे कर ध्यान अपनी तरफ खींचे रहता है. 
जैसे तंदूर की अंदरूनी दीवार पर लच्छे वाली रोटी ठोकी जाती हो 
और जो याद की आंच से जल भी ना पाती हो कि बाहर से कोई कील लगा वो ख्याल निकाल लेता हो

त्योहार आते हैं तो खटिया पर बैठे
गुटका चबाते मामा की  कही टूटी टूटी बातें याद आती है 
"तुम्हें मेहमाननवाज़ी नहीं आती"
जिनसे मिले पंद्रह साल होने को आये
और अब जिनके जाने की खबर आती है.

त्योहार आते हैं तो बाबा की याद आती है
झटपट लाठी टेके अड्डे से आते ही 
आड़े तिरछे चश्मे पोंछ, आवाज़ में बेचैनी भर पूछते
"बेईमान भी तो पटना नहीं चला गया ?"
और निरुत्तर लोग, आस पास की भारी हवा..... 
एक सिनेमा के दर्शक के तरह कि जब परिस्थितियां लगातार प्रतिकूल हों तो 
वो अबकी किरदार के लिए समर्थन मांगने लगता है

और याद आती है द्वार के पीछे बहुत सारी हरी दूब में अधलेटा सल्फास की शीशी .

त्योहार आते ही छोटे चाचा नंगी पीठ पर ढलकते पसीने की धार याद आती है
मेरी माँ की  नवेली ब्याही सहेली बन कहते हैं "भौजी, कहएं बड़का भैया के,  नय भेजय लय वहां"
कि पिता जी लगातार डांटे जा रहे हैं
और साल लगते ना लगते पिता जी का मटका बदलना याद आता है. 

त्योहार आते ही गालों पर मोटे तिल वाली दादी याद आती है.
सब कुछ सुन्न हो जाने पर भी जिसकी स्नायु जीवित है.
बीडी के धुएं सा जिनका हाथ महकता है. 
दरार पड़े पेडे का स्वाद जीभ पर आता है. 

बदन मेरा एक देश है.
और त्योहार स्वतंत्रता दिवस
घर के लोग वो बलिदानी हैं 
जिनकी याद में सर गर्वित हो झुका रहता है.

त्योहार शरीर और मन बांटने वाले दिन होते हैं.
उनकी याद हमें मीठे मीठे तकलीफ देती रहती है 
हम कोई चीथड़े हो जाते हैं जिसका दोनों सिरा खोजकर 
दर्जी उसपर अपने सिलाई मशीन का स्टील लोक करता है और
ताबड़तोड़ सूइयों के प्रहार से बिंध देता है.