पद और गोपनीयता की शपथ

मुझे मिले हैं आदमी
नकाबपोश 
और कथित रूप से बावन हाथ के आँत वाले उलझे आदमी 

मुझे मिल रहे हैं आदमी 
घोषित औरतों जैसे 
जिनके बारे में मशहूर है कि बनाने वाले भी उसे नहीं जान सके 

मुझे मिले रहे हैं आदमी 
सड़क पर गोल थूक के रूप में 
जिसे देखकर अचानक चमकती हुई अठन्नी का बोध होता है 
और झुक कर छूने से उँगलियाँ लिजलिजी हो जाती है. 

मुझे मिल रहे हैं आदमी 
गमलों से लदे घर के बाद झूले की खवाहिश करता हुआ 
सत्तर हज़ार के काम के बदले सात सौ देता हुआ
मुझे मिल रहा है भरे पेट का भूखा आदमी
मौसम मुताबिक तापमान रखने वाला आदमी 
मख्खन लगी रोटियां परोसते हुए वो 
बदले में मेरा गोश्त लेने वाला है.

प्यार पीता आदमी, 
क्षणिक रूप से मूड के सिक्कों में ढला आदमी
हँसते हुए नए साल के केलेंडर देता हुआ 
शोषण की तारीख दर्ज करता आदमी

जिसने भविष्य की डायरी में लिख रखे हैं 
'मैं मजबूर था', और 'जो किया तुम बच्चों के लिए' जैसे जुमले
शरीर को सुख देने के आड़ में 
'करना पड़ता है' और 'क्या कर सकते थे' कि दुहाई देता आदमी.

11 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय said...

कबिरा इस संसार में भाँति भाँति के लोग।

Rahul Singh said...

आदमी को समझने में सुलझता, उलझता आदमी.

अनिल कान्त said...

yahaan bhi like ka button hona mangata...bas like karo aur nikal lo

Neeraj said...

नजीर याद आ गए ,
और ख़ाक में पड़ा है सो है वो भी आदमी

sonal said...

kabhi bhatakte huye pal shaayd humse bhi mile they

sonal said...

kabhi bhatakte huye pal shaayd humse bhi mile they

Satya Vyas said...

अच्छा ।
नये साल मे बहुत डायरी और कैलेंडर बटोर रहें सागर बाबू. नया साल मुबारक हो । और भजगवान करे कम अज कम इस साल आपको केवल मेरे जैसे लोग मिलें । ताकि आप जान पाये ं कि अभी तक मिले लोग कितने अच्छे थे ।
सत्य

richa said...

इसे पढ़ कर निदा जी की वो नज़्म याद आ गई -

हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी

सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश पर ख़ुद मज़ार आदमी

हर तरफ़ भागते दौड़ते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी

रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी

ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी

रवि कुमार said...

ओह...अदभुत्

अपूर्व said...

अजीब शै है इंसां भी..आपने जिक्र किया जिसका..हमारे दांतों तले दूसरों की गर्दनें होती हैं.जबकि हमारी गर्दनें दूसरों के दांतों तले दबी होती हैं...एक व्यवस्था बनाते हैं शोषण की और खुद उसका सबसे बड़ा शिकार भी आप होते हैं..फिर ऊपर से अपनी बेखुदी..मगर आपकी कविता का नश्तर हड्डियों तक मार करता है..ऐसी मजबूरियों के लिये ही फ़िराक साब ने लिखा होगा...

हजारों खिज्र पै्दा कर चुकी है नस्ल आदम की
ये सब तस्लीम लेकिन आदमी अब तक भटकता है
:-(

pallavi trivedi said...

aaadmi ki na jane kitni jaat hoti hain...kya kabhi aisa bhi aadmi mila jo sadak par thook jaisa nazar aaya ho lekin paas jane par asli athanni nikla ho... baharhaal tumhare style ki behatreen kavita.