आने वाले दिनों में हम
अपनी महत्वाकांक्षा की
तरकश में
कुछ और विष बुझे तीरों से साथ
नयी नस्लों की शिकार पर निकलेंगे.
बर्बरता के निशान हमारे सांवले जिस्मों पर होंगे
नमकदार चेहरे में छिपी होगी
तब भी
हमारी चमकती बत्तीसी
जिनसे हमने
'मांस खींचने' का काम लिया है.
इन्हीं दांतों से हमने खींचा था मां का दूध
फिलहाल
हमने अपनी पदोन्नति इसपर टिका रखी है।
इस विज्ञापन युग में हमें
अपने दांतों से
बड़ी उम्मीदें हैं.
निश्चित घूर्णन की दरकार है, बस
बाल्टी फिर कुंए में होगी.
बाघ!
हमारे हाथ अब भी खाली हैं
फिर भी;
हम तुमसे ज्यादा हैं ताकतवर.
तुम्हारी प्रजातियों का अस्तित्व खत्म कर
साबित कर देंगे
कि हम
तुमसे ज्यादा हैं- मांसाहारी.
खा जाएंगे हम समूची प्रजाति.
इस तरह तब
सिर्फ हमीं समझेंगे
कि हम हैं
सांपों से ज्यादा दोगले
औ'
हरामियों से ज्यादा
नमकहराम!
25 टिप्पणियाँ:
एक अहम् मुद्दा उठाने और समझाने में सफल रहे..
एक प्रभावशाली कविता के जरिये...
खट खट करके नंबर आते हैं १४११, और हम चाह कर भी नहीं भूल पाते हैं कि बस इतने ही बाघ बचे हैं भारत में.
पर रुकेगा कुछ भी नहीं, न ऐसा शिकार, न ऐसे खरीददारी...
सच कहते हो...
"तुम्हारी प्रजातियों का अस्तित्व खत्म कर
साबित कर देंगे
कि हम
तुमसे ज्यादा हैं, मांसाहारी
खा जाएंगे हम समूची प्रजाति"
ये साईट देखो http://www.saveourtigers.com/
बेहतर...
कई बंद प्रभावी हैं...
और नये अंदाज़ से ध्यान खींचते हैं...
जब हम जो कहना चाहते हैं और वो कह पाते हैं तब वह रचना बेहद प्रभावशाली प्रतीत होती है...शब्द दर शब्द
इस विषय पर आपकी भावनाओं से सहमति है।
आज टूर पे रहे...काफी धुल धक्कड़ हुआ गाँव-गाँव...घर पहुंचे तो देखे कवि फिर कुछ कह गया है...सही कहते हैं पढ़ के कुछ हो गया...
बहुत प्रभावी रचना...बेहतरीन. बधाई, सागर!
कभी सोचता हूँ कौन सी दुनिया के आदमी हो .कम उम्र में दुनिया को देखने वाला चश्मा लगा कर बैठे हो.....वो चश्मा जो किसी दूकान पर नहीं मिलता .जिसका साइज़ ..ओर जिसकी पॉवर साल दर साल बढती जाती है ...इतनी इ बरसो पहले देखी गयी दुनिया फ्लेश्बेक में अलग अर्थ लिए नजर आती है .....
इस लाइन पर तुम्हे सलाम
नमकदार चेहरे में छिपी होगी
तब भी
हमारी चमकती बत्तीसी
जिनसे हमने
'मांस खींचने' का काम लिया है.
ओर इस पर दो सलाम
बाघ!
हमारे हाथ अब भी खाली हैं
फिर भी;
हम तुमसे ज्यादा हैं ताकतवर.
स्वीकारोक्ति : आमतौर पर देखें तो ये पोस्ट (मेरे लिए पोस्ट, निर्धारित आप करेंगे ये कविता है या नहीं) कवि कह गया है के अंतर्गत नहीं आता किन्तु जब इसे आज के परिपेक्ष्य और प्रासंगिकता के आधार पर देखा तो इसे "कवि कह गया है - 5 के तहत रखा"... मुझे शिल्प का ज्ञान नहीं किन्तु अगर आप मुद्दा समझ रहे हैं तो पोस्ट सफल हो रही है.
वर्तनी सुधार (हमेशा की तरह) : अशोक कुमार पाण्डेय - बहुत बहुत शुक्रिया सर,
... अगर अभी भी गलतियाँ हो क्षमा.
तस्वीर : गूगल से (with thanx).
नमकदार चेहरे में छिपी होगी
तब भी
हमारी चमकती बत्तीसी
जिनसे हमने
'मांस खींचने' का काम लिया है.
इन्हीं दांतों से हमने खींचा था मां का दूध
फिलहाल
हमने अपनी पदोन्नति इसपर टिका रखी है।
....ये बिम्ब मुझे कायल कर गया...ज़बरदस्त...
sach ki kadwahat dikhti hai ismein :)
बहुत अच्छी तरह से कही गयी है ये ज़रूरी बात ..बेहद असरदार
परसों भी आकर पढ़ गया था। आज फिर से पढ़कर कुछ लिखने का मन किया....
तुम सच में अचम्भित करते हो- अपने शब्दों से, वर्तमान को देखने की अपनी क्षमता से और उस क्षमता को पोस्ट में बदलने की कला से।
कवि कुछ भी कहेगा, जब भी कुछ कहेगा तो उस कथन में कविता का साम्य तो होगा ही। ...तो टिप्पणी में दी गयी तुम्हारी स्वीकरोक्ति भी कविता का ही एक विस्तार है।
आने वाले दिनों में हमअपनी महत्वाकांक्षा की तरकश में कुछ और विष बुझे तीरों से साथ नयी नस्लों की शिकार पर निकलेंगे.रह जायेंगे वो सिर्फ तस्वीरों में या फिर आने वाली नस्लों को सुनाये जाए वाली कहानियो में.एक वक़्त की बात है जंगल में तब बाघ भी रहा करते थे.....
वाह उस दिन की बात के बाद तुमने वाकई इस पर काम किया है…अब इसकी अभिव्यंजना और तीखी हो गयी है।
हां धूमिल की भाषा अपनाने के लिये शब्दकोश और विस्तृत करना होगा…और तुम कर ही लोगे…फिर यह तुम्हारी भाषा होगी।
बधाई और शुभकामना
अरे अगर यह कविता नहीं है तो क्या है भाई?
बिल्कुल कविता है आदमकद कविता
सांपों से ज्यादा दोगले
औ'
हरामियों से ज्यादा
नमकहराम!
आदम जात के घिनोने चेहरे को आवरण फाड़ कर सबके सामने साख दिया है आपने .........
बाघ और पता नही क्या क्या .... जब तक इंसान के पास खूनी पंजा है .... नुकीले दाँत हैं ... सब कुछ खाता रहेगा ....
बढ़िया मुद्दा उठाया है.. कविता है या नहीं इस से मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता.. पर जो लिखावट है उस पर कई कविताएं कुर्बान कर सकता हूँ.. निसंदेह तुम लंबी रेस के घोड़े हो.. बहुत आगे जाओगे...
वैसे एक बात बताओ ये कवि गया कहाँ है?
बहुत अच्छे से उठाई है सटीक बात...
हम हैं
सांपों से ज्यादा
दोगले
औ'
हरामियों से ज्यादा
नमकहराम!
इंसानी फितरत का खूब आंकलन किया है...
कविता बड़ी खूबी से बाघ के बहाने बात उसी आदमी की ही करती है जो जंगल से भी जंगली है...
बढ़िया,सधी हुई.
क्या यहाँ भी वही बाघ है जो केदा्रनाथ जी की कविताओं मे गायब हुआ था...रहस्यमय और जादुई.. अपने अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न
इतनी तल्ख कविता हमारी समझदारी के कोमल गाल पर एक तमाचे सी पड़ती है..कि सज्जनता और छद्ममानवीयता का सारा मेक-अप झड़ सा जाता है..मगर हम अपनी असली सूरत आइने मे देखने को तैयार हैं क्या?..रात होते-होते अपने हाथ के नाखूनों को चादर मे बेतरह बढ़ा हुआ और प्यासा पाता हूँ..बाघ का मुझसे डरना उसकी समझदारी ही है..
हाँ निम्न पंक्ति कविता के अर्थ मे कहीं पर विचलन उत्पन्न करती हुई सी महसूस होती है
बर्बरता के निशान हमारे सांवले जिस्मों पर होंगे
वैसे काफ़ी कुछ कह गया है कवि..पिछले कुछ दिनों मे..आते-२ ही खासा होमवर्क..वो भी मुझ जैसे कामचोर को...खुदा खैर करे!!!
आखिरी पंक्ति और कविता का एंट्रो बहुत दमदार है. कविता सम्भवतया दो तीन बैठकों का नतीजा है, इसलिए कई सारे मौसम इसमें घुस आये हैं. शब्दों का चयन आरम्भ में पूर्ण प्राकृतिक है बीच में भौतिकवादी और अंत में सामाजिक. इस तरह से एक कविता में कई योद्धा लड़ते हैं. यह लडाई बहुत छोटे मैदान में लड़ी गयी है अतः सब अपना कौशल नहीं दिखा पाए हैं और अभी भी कवि को ललकार ही रहे हैं.
कविता से इतर - हाल ही में दो बाघ शावकों ने दो बकरियां मर डाली तो उन्हीं के बचे हुए मास में ज़हर भर कर उन शावकों से बदला ले लिया गया कुल थे १४११ अब बचे १४०९ यानि आपने कितना सही कहा है.
"औ'
हरामियों से ज्यादा
नमकहराम!"
मेरे पास शब्द नहीं हैं!!!!
हरामियों से ज्यादा नमकहराम! क्या बात है!
लेकिन दोनों अलग-अलग मोहल्ले के लोग हैं। कविता एकता के लिये बेचारों को एक मंच पर खड़ा कर दिया। हरामी होने में हमारी का कोई योगदान नहीं होता। नमकहराम होने में पूरा योगदान होता है। तुक मिलाने के लिये बेतुका प्रयोग। का कहते हो?
हमारी की जगह हरामी बांचे!
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