मस्तिष्क में जब अम्लीय प्रतिक्रिया हो रही हो
और सरोकारों की परिधि में
महज़ हाइड्रोज़न बम का
विस्फोट हुआ हो
एक पैर को बांध कर सरहद पर
कंटीले बाड़ों के बीच घसीटा जा रहा हो...
उन कांटो से सृजनशील और समाजवादी मन के
चीथड़े होते जा रहे हों...
सदियाँ, जैसे
किसी खाकी बैकग्राऊण्ड में चलती
फिल्म लगती हो.
दृष्टि के अंतिम छोड़ पर
हरियाली में आग लगी हो
ऐसे में
'अब कुछ हो जायेगा हमसे'
मुझे अक्सर लगता है माँ
माँ, मुझे अक्सर लगता है
सेना ने हमारे शिविरों में घुसकर
बीती रात भीषण तबाही मचाई है
कई गर्भनाल समय से पहले काट डाले हैं
बच्चों की नींद ख़राब की है
औ' अनुशासन नामक कोई शिष्टाचार भरा रीत
नष्ट किया है.
फिर,
मैं कल्पना करने लगता हूँ उस कवि का
जो सांसत में जीता है
जिसके शांतिपूर्ण जीवन को 'हमास' का घोषित कर
उसके कुर्ते को उसके मुल्क जैसी सूरत दे दी गयी है
सोचता है कवि
कैसा विरोधाभास है ना प्रभु!
उस पार हथगोले फेकने से पहले
मानस पटल पर सृजन की लकीरों के सामानांतर
खिंची जाती हैं त्रासदियों की रेखाएं.
दृष्टि के अंतिम छोड़ पर
हरियाली में आग लगी हो
ऐसे में
'अब कुछ हो जायेगा हमसे'
मुझे अक्सर लगता है माँ
माँ, मुझे अक्सर लगता है
सेना ने हमारे शिविरों में घुसकर
बीती रात भीषण तबाही मचाई है
कई गर्भनाल समय से पहले काट डाले हैं
बच्चों की नींद ख़राब की है
औ' अनुशासन नामक कोई शिष्टाचार भरा रीत
नष्ट किया है.
फिर,
मैं कल्पना करने लगता हूँ उस कवि का
जो सांसत में जीता है
जिसके शांतिपूर्ण जीवन को 'हमास' का घोषित कर
उसके कुर्ते को उसके मुल्क जैसी सूरत दे दी गयी है
सोचता है कवि
कैसा विरोधाभास है ना प्रभु!
उस पार हथगोले फेकने से पहले
मानस पटल पर सृजन की लकीरों के सामानांतर
खिंची जाती हैं त्रासदियों की रेखाएं.
19 टिप्पणियाँ:
अध्बुध ............. कभी कभी आपको पकड़ना मुश्किल होता है ...........
अच्छी कविता कहना काफ़ी नहीं होगा सागर
बेहद गहरे द्वंद्व से उपजी है यह कविता…देर तक उद्वेलित करती है…बधाई साथी
कविता बेहद सांद्रित अम्ल की तरह. एक आकार में पर उस आकार को तोड़ने की तड़प से भरी.
sir aapka to jawaab nahi hai
aur aapne itna keh diya ye mera saubhagy hai :)
Gahan bhaav...
Jhakjhorti kavita...
मेक्सिम गोर्की पढ़ के वापिस आता हूँ....
lagtha hai ye kavita jaddojahad me likhi gayi hai aur iska kewal aur kewal uddeshya kavita ko samaapti dena hai
ओर मुझसे किसी ने कहा है जब विरोधभास बाहर नहीं निकलता कई रोज .....तो किसी कवि का जन्म होता है .कभी बाईस की उम्र में ....कभी तेईस की उम्र में ......ओर कभी कभी तीस में भी ..जेहन का अम्ल रोज अपनी प्रोपर्टी फिर भी चेंज करता रहता है ....
achchha likha hai
हर तरफ पतन के तूफ़ान है.
सैलाब है,भूख,बीमारिया मौत है..
कितने ही दिल घायल हो,कितनी आंखे गीली हो पर जंग जारी रहती है.कभी सरहद पे और कभी उजड़ी या उजाड़ दी गयी बस्तियो में.
आज थोड़ा लंबा कमेन्ट लिखने के लिए पहले से माफ़ी...
जब से ये पोस्ट पढ़ी है कुछ लिखने को उद्वेलित हो रही हूँ, शब्द उमड़ते हैं और बिना बरसे बादल की तरह अपना रुख बदल लेते हैं.
ट्रेजेडी के बारे में बिस्रामपुर का संत में पढ़ी कुछ पंक्तियाँ हैं...
'ट्रेजेडी क्या होती है जाना हो तो इतिहास में बहुत पीछे जाने की भी जरूरत नहीं है. यहूदियों पर हिटलर के अत्याचारों का इतिहास पढ़ो, भारत पाक बटवारे के समय के भयानक नरसंहार और उसके दुसरे कुछ अपराधों को याद करो, या उसके कुछ ही साल पहले का बंगाल का अकाल या बाद का वियतनाम युद्ध! ये ट्रेजेडी हैं, भूकंप या ज्वालामुखी के उत्पात की तरह हम इन्हें भगवान के मत्थे भी नहीं मढ़ सकते, इन्हें हमारी ही पशुता ने रचा है.'
ये सब याद आया...अचानक, अनायास.
अगर कोई कविता इतने दिन किसी को परेशां कर सकती है तो मुझे लगता है अभी भी बहुत उम्मीद बाकी है.
मानस पटल पर सृजन की लकीरों के सामानांतर
खिंची जाती हैं त्रासदियों की रेखाएं.आपकी लिखी आखिरी पंक्तियाँ हर बार जहन को तेजी से झंझोर देती है ..और बहुत देर तक इस बार भी दिल इसी में गुम रहेगा ...क्यों खींच जाती है साथ साथ यह रेखाए ..
अशोक जी के कथन के साथ में भी हूँ
मैं धन्य हूँ कवि के कहने पर...
कवि के कहने का अंदाज मायने रखता है
अरे यहाँ तो सीक्वेल चल रहे हैं ...वैसे न भी होते तब भी मैं पीछे की रचनाएँ पढता ..
आपकी कविता में बाँधने की शक्ति गज़ब की है ...हमने तो समर्पण कर दिया..
ई "लेखनी जब फुर्सत पाती है..." है को एकदमे बदल कर "कवि कह गया है" ही काहे न कर देते हो? सब ठो शीर्षकबा पर ई 1,2,3,4 नहीं लगाना पड़ेगा न तब...
विगत तीन किश्तों की तुलना में तनिक डगमगायी-सी, कमजोर-सी रचना। विगत तीन किश्तों की बात कर रहा हूँ मैं। उन तीनों में तुमने अचानक से अपने पाठकों के लिये अपेक्षायें सातवें आसमान पर पहुँचा दी है। आश्चर्य है कि किसी अन्य पाठक ने इस बात को नोटिस नहीं लिया है सिवाय अपने "अनाम बंधु" के। मैं भी सहमत हूँ उनसे। लगता है जैसे कवि ने अपने लिये कुछ समय-सीमा निर्धारित कर रखी है कि इस दरम्यान कोई कविता लिख कर लगानी है और ये भी कि कुछ नये बिम्बों को लाकर पाठकों को चौंकाना है। तनिक तल्ख इसलिये हो रहा हूँ कि तुम करीब हो मेरे...मेरे जैसा अन्य पाठक भी खो जायेगा पहली पंक्तियों में ही वर्णित अम्लीय प्रतिक्रिया या हाइड्रोजन बम के विस्फोट में...
कुछ बिम्ब बेशक अच्छे बन पड़े हैं और जैसे कि अचानक से माँ को संबोधित करता हुआ कवि अपने भय को साझा करता है पाठकों से....
दुबारा आना पड़ेगा अन्य पाठकों की प्रतिक्रिया जानने।
मैने विगत तीन रचनायें तो नही पढ़ी...मगर ये कविता जितनी लिखी गई, उससे कहीं अधिक कुछ कह रही है....! जितनी समझ में आ रही है उसको दोबारा अगर समझाना पड़े तो फिर शब्दो की मुस्किल आ पड़ेगी...!!
गूँगे का गुण....!!
हम्म्म्म्मsssssss...!
बहुत मेहनत है इस कविता में भाई!
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