रोज़ का किस्सा...


चलो किसी बोरी में भरकर
फैंक आते हैं... नैतिक विचारों का पुलिंदा
सारी तालीमें जो एक उम्र से दिमाग ने हासिल की है
मन कितनी सारी बातों से भरा है
वक़्त पर तो यह तालीम काम आते नहीं
एक वैचारिक प्रदूषण ही तो है

तुम मिलोगी तो बताऊंगा कि
जब भी ढलता है सूरज
उदय होने लगता है एकाकीपन
तब कुछ कसक पैर दर्द की शिकायत लेकर बैठ जाते हैं

दूर कहीं
नीली फ़िल्में,
किसी पुलिया के नीचे पी गयी आधी बोतल शराब,
किसी मजदूर से लेकर फूंकी गयी बीड़ी
औ' परायी स्त्रियों ने रोज़ रात की आत्महत्या से बचाया है...

कितनी अलहदा होती
ना जिंदगी 'एलियन'
तुम अंजुरी से शराब उलीचती
औ'
मैं वोहीं अपना वसीयत कर आता

समय जो बूढ़ा हो गया है
कहता है दिन रात
मैं बस अपना शरीर खींच रहा हूँ बेटा
कोई उसको बता सकेगा
यह लम्हा उससे पहले जाने की तैयारी में है ?

21 टिप्पणियाँ:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

समय जो बूढ़ा हो गया है
कहता है दिन रात
मैं बस अपना शरीर खींच रहा हूँ बेटा
कोई उसको बता सकेगा
यह लम्हा उससे पहले जाने की तैयारी में है ?


बिलकुल सच कहा ..... सार्थक और सटीक......

ग्रेट.... वर्क....

के सी said...

औ' परायी स्त्रियों ने रोज़ रात की आत्महत्या से बचाया है...
यहाँ से आगे दूसरी कविता पढ़ता हूँ, दोस्त सागर आपने कविता के साथ न्याय किया है. एक पूरी उम्र को सीचती है. मैंने जहाँ रेखांकित किया वहां से पहले और बाद में अलग अलग और फिर एक साथ पढ़िए . बताईयेगा कि ये मेरा वहम तो नहीं है कि कविता में कोई गेप बन रहा है. विअसे मेरी पकड़ तो गढ़ी में भी उस स्तर की नहीं है और कौन आलोचक लेखक बनना चाहता है यहाँ मैं तो आपकी राह का राही हूँ, जहाँ रस मिले जी भर के पियो.

के सी said...

दो शब्दों में टाईप एरर है इन्हें, वैसे और गध्य पढ़ें कृपया

अजय कुमार झा said...

मित्र आपकी शैली और शब्दों का चयन तथा उनका गजब का उपयोग देखते ही बनता है । प्रभावित हुआ आपकी रचना पढके ...सच कहूं तो बहुत ही अच्छा लगा आपको पढना

Rajeysha said...

दूर कहीं
नीली फ़िल्में,
किसी पुलिया के नीचे पी गयी आधी बोतल शराब,
किसी मजदूर से लेकर फूंकी गयी बीड़ी
औ' परायी स्त्रियों ने रोज़ रात की आत्महत्या से बचाया है...

इस तरह थोड़ा और बच गया हूं मैं जि‍न्‍दा रहने के लि‍ए

Satya Vyas said...

nahi kuch nahi ..........
kuch bhi nahi
jo kahna chaahte ho ek dafa wo bhi kah do .
hame bhan hai ek din hum wo bhi padhenge mitr.

अर्कजेश said...

चलो ऐसा ही करते हैं...

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

लम्बी बाते, बहुत सारे दृश्य, बहुत कम ही पंक्तियों में कह दी.

Udan Tashtari said...

शानदार शैली में गहन भाव लिए उम्दा रचना...बहुत बेहतरीन लिखते हो भाई!! दिल को छू जाती है आपकी लेखनी!

हरकीरत ' हीर' said...

सागर जी ,

गुंजाईश रह गई ..... सामान्य होकर नहीं लिखी है शायद ......!!

Pawan Kumar said...

समय जो बूढ़ा हो गया है
कहता है दिन रात
मैं बस अपना शरीर खींच रहा हूँ बेटा
कोई उसको बता सकेगा
यह लम्हा उससे पहले जाने की तैयारी में है ?

बस यही कहूँगा कमाल किया आपने

sanjay vyas said...

किशोर जी और हरकीरत जी की टिप्पणियों को पढ़कर मैं उनकी बात को आपके लिए छोड़ कर कहता हूँ,कविता का मूल भाव बहुत दिलकश है.मन करता है ऐसा ही कुछ करने का.मन चाहता है ऐसा ही कुछ होने का.
डीलर्निंग बहुत ज़रूरी है.
ऊपर हवा कम है नीचे उतरो और एक सांस तबीयत से खींचो.

अनिल कान्त said...

Superb !

Amrendra Nath Tripathi said...

सागर भाई !
जब तक हम बचपन को इंज्वाय न करें तब तक नेचुरल का
अहसास ले पाना संभव नहीं हो पाता .. ऐसी स्थिति में यह कहना
ही पड़ता है --- '' फैंक आते हैं... नैतिक विचारों का पुलिंदा
सारी तालीमें जो एक उम्र से दिमाग ने हासिल की है '' |
... वहीँ एक लम्हे में उम्र जीने का अहसास दोनों स्थितियों में अपनी
सार्थक उपस्थिति दर्ज करता है ---
'' औ' परायी स्त्रियों ने रोज़ रात की आत्महत्या से बचाया है...''
और ...
'' तुम अंजुरी से शराब उलीचती
औ'
मैं वोहीं अपना वसीयत कर आता ''
लेकिन यही तो रचनात्मकता है जो मानव द्वारा शरीर खींच रहे समय
के प्रति ललकार बनती है ---
'' यह लम्हा उससे पहले जाने की तैयारी में है''

डॉ .अनुराग said...

चलो किसी बोरी में भरकर
फैंक आते हैं... नैतिक विचारों का पुलिंदा
सारी तालीमें जो एक उम्र से दिमाग ने हासिल की है
मन कितनी सारी बातों से भरा है
वक़्त पर तो यह तालीम काम आते नहीं
एक वैचारिक प्रदूषण ही तो है


जान मेरी....... ईमानदारी से बतायो....ये ख्याल कहां से आया ....वही से जहां तक मै सोच पा रहा हूं

दिगम्बर नासवा said...

वक़्त पर तो यह तालीम काम आते नहीं
एक वैचारिक प्रदूषण ही तो है

विचार नैतिक और अनेतिक नही होते ...... दिमाग़ में भरा प्रदूषण ही उसको नैतिक या अनेतिक बनाता है ..... आपकी रचना पढ़ कर गले में कुछ फाँस सी अटकी हुई महसूस होती है ..... कमाल के शब्द उगाते हैं आप सागर जी .........

दर्पण साह said...

परायी स्त्रियों ने रोज़ रात की आत्महत्या से बचाया है...
..Kya bura hai fir?


..Zindagi se badhkar koi falsafa nahi. Aur agar hai to zindagi ke saamne kuch bhi nahi, kyunki jab tak zinda hain tab tak hi hain.


Aur ye aap mujhse acchi tarah jaante hain, aur kai baar hum jaise logon ko bhi manwate aaiye hai...
ki...
Beta, Ye hai zindagi !
Dekho ise...
...isse pehle ki lamhon aur sharir ke beech Race khatam ho.

(Mera nazariya shayad is poem ko samajhne ka kuch alag raha ho ya galat raha ho.)

कुश said...

उलझा हुआ मांझा और ही उलझता है.. उलझी हुई दुनिया को सुलझाओगे बरखुरदार ???

Dr. Shreesh K. Pathak said...

"isse pehle ki lamhon aur sharir ke beech Race khatam ho."--दर्पण भाई..की इस बात से शुरू करता हूँ...


पहले तो बधाई सागर साहब..आपके अक्वेरियम मे कितने रंग-बिरंगे शब्द तैरा कराते हैं...उस अक्वेरियम यकीनन शराब लबालब है..और कौन खूबसूरत सी है वो जो अक्वेरियम मे चारा डाला करती है....!!

वैचारिक प्रदूषण

तब कुछ कसक पैर दर्द की शिकायत लेकर बैठ जाते हैं

औ' परायी स्त्रियों ने रोज़ रात की आत्महत्या से बचाया है...

तुम अंजुरी से शराब उलीचती
औ'
मैं वोहीं अपना वसीयत कर आता

मैंने एक नया कारोबार शुरू किया है..मछलियाँ रंगने का..आपके अक्वेरियम के लिए.....!

गौतम राजऋषि said...

मुझे नहीं लगता कि तमाम तालीमों को वैचारिक प्रदूषण कहने की हिमाकत आज से पहले किसी कवि ने की होगी और वो भी यूं निर्विकार होकर...

बहुत खूब सागर मियां।

सलामत रहो और यूं ही कविता-दर-कविता अपने हम जैसे पाठकों को अपनी लेखनी से हैरान करते रहो।

रवि कुमार, रावतभाटा said...

आपकी शैली और अंदाज़ अलहदा है...
हर कविता में इनका एक नया आयाम सामने आता है...