गाड़ियाँ
जब देर तलक सड़कें पार नहीं करने देती तो
उसे लगता
यह जनविरोधी हैं...
नफरत होती उन लड़कियों से उसको,
जो मौन स्वीकृति दे चुकी है कि
मर्दों का आगोश ही है उनका आखिरी ठौर...
फूटपाथ की चौड़ाई कमतर होती जाती तो
उसे लगता,
यह जड़ तो अब गया!
इस धुरी को मोड़ने की कवायद जारी है
सरकारें दुश्मन हो गयी हैं...
हमें ताश के खेल में 'दहला' बना कर
जोश से पटका गया है
हरकतें हो नहीं रहीं
इस चुप्पी के आड़ में
जाने अब कैसा षड़यंत्र रचा जा रहा है.
शल करने को
बसों में भरकर
ढोए जा रहे हैं आदमी
देर-सवेर सिद्धांत औ' व्यवहार का बारी-बारी कत्ल होना है...
हमारी आखिरी हदों को 'दूषा' जा रहा है
उनके इरादे मर्दाना फितरत से हो गए हैं...
विसंगतियां जानबूझ कर रखी गयी हैं हमारे बीच
रोग पैदा किया जा रहा है...
प्रजातंत्र
देखा नहीं हमने अभी
करना पड़े शायद कुछेक सदी इंतज़ार और...
जो कहते हैं कि देश में प्रजातंत्र है
उन्हें दिमाग दुरुस्त करने को जरुरत है.
16 टिप्पणियाँ:
सार्थक और बेहतरीन शब्दों के साथ ........ बहुत खूबसूरत रचना..........
WAAH LAJAWAAB !!!
SOCH KO KHURAAK DETI BAHUT HI PRABHAAVSHALEE ABHIVYAKTI....
जल्दबाजी में सिर्फ इतना कह रहा हूँ कि कविता
पर ठहर कर सोचने फिर आऊंगा ...
सही कहते हो मियाँ
फिर एक अच्छी कविता पढ़ने को मिली
प्रजातंत्र
देखा नहीं हमने अभी
करना पड़े शायद कुछेक सदी इंतज़ार और...
जो कहते हैं कि देश में प्रजातंत्र है
उन्हें दिमाग दुरुस्त करने को जरुरत है...
प्रजातंत की परिभाषा भी काल, देश और व्यक्ति अनुसार बदलती रहती है ...... कहने को तो चीन और रूस में भी प्रजातंत्र है .......... और भारत में भी ........... व्यवस्था से द्वंद करती हुए नज़र आती है आपकी प्रभावशाली रचना ...........
prajatantra ise hi to kahte hain... gade murde saman mudde ukhadna, unpar raajneeti karna aur fir bhi ham jaise padhe likhon ka vote haasil kar lena aur fir 5 saal tak desh ko chuste rahna... ab bataiye prajatantra hai ki nahi bharat mein..
aur han, is baare mein maine kabhi class mein GD mein kuch kaha tha.. likh raha hun..
Democracy, earlier, was characterized by three terms: 'of the people', 'for the people' and 'by the people' and now it has become rule 'of SOME people', 'for SOME people' and 'by SOME Human like creatures'
अमूमन एक दो बार तो ऐसा हुआ है के मै तुम्हारी कविता पढ़कर चुपचाप लौट आ गया ...क्यूंकि उन पर फौरी टिपण्णी नहीं करना चाहता था .मसलन पिछली कविता ....कई बार ऐसे वक़्त पढता हूँ.जब सिर्फ पढ़ सकता हूँ........खाली वाह वाह .बेमिसाल कहकर नहीं जा सकता ....तुम्हारे लिखने में एक इमानदारी है .जाहिर है इमानदारी कभी कभी तल्ख़ हो जाती है .ओर कभी कभी वल्गर भी......या तुम्झारी भाषा में कहे तो अश्लील भी......पर सच में तुम्हारे पास इतना कुछ है कहने को .लगता है .....इसे ओर संवरना चाहिए पढ़ पढ़ के .....वो कहना धूमिल का ...कविता आदमी में आदमी होने की तमीज है .....
मन थोडा खिन्न है .चिटठा चर्चा पे गुस्से में टिपण्णी करके तुम्हारे ब्लॉग पर आया हूँ....शायद सही प्रतिक्रिया न दे पायुं ......
नफरत होती उन लड़कियों से उसको,
जो मौन स्वीकृति दे चुकी है कि
मर्दों का आगोश ही है उनका आखिरी ठौर...
वाह......सही समय सही बात कह डाली आपने ....अगर किसी को जरा भी लज्जा महसूस हो तो ......!!
रस ले के तो अब पढ़ा ..
इस पढ़त में कविता हू-ब-हू आपके
' ओ री दुनिया ' वाले फोटो की तरह ताजी लगी गोया कपड़ा पहन के ही
नहा के चले आये हों ..
' उस ' के ध्यान में प्रजातंत्र की व्याख्या बड़ी मोहक है ..
जन विरोध की 'फीलिंग ' उतनी ही देर ठहर पाती है जितनी
देर वाहन रुकावट डालता है .. नफरत को भी खास कोण से देखा
जाता है ..हम वोट-दियाऊ कठपुतली से बन गए है ..कानून बनाने
के साथ ही ऐसे छेद भी बना दिए जाते है जिनसे समय-समय पर
अवसरवाद का हाथी पास करा दिया जाय, यानी विसंगतियों की
सचेत व्यवस्था ..
इसे _'' जो कहते हैं कि देश में प्रजातंत्र है
उन्हें दिमाग दुरुस्त करने को जरुरत है.''_ न भी कहते तो कविता कमजोर न होती ..
बहरहाल , आपसे जैसी उम्मीद थी वैसी ही उम्दा रचना पढ़ने को मिली ..
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, आभार ...
सागर प्यारे,
कविता पढ़ने का भी अपना ही एक आनंद है...
ऊपर शल की जगह छल शायद ज़्यादा सूट करता है...
जय हिंद...
फिर आता हूँ...!
खुशदीप जी,
शुक्रिया, आपका कहना भी अपनी जगह सही है किन्तु जहाँ तक इस खाकसार की जानकारी है शल करना मतलब "काट दिया जाना होता है" बन्दे ने इसी सन्दर्भ में इसका प्रयोग किया है... जो घटना को पूरी तरह तो नहीं किन्तु उसके करीब से करीब का शब्द है...
जो कहते हैं कि देश में प्रजातंत्र हैउन्हें दिमाग दुरुस्त करने को जरुरत है.
अभी न्यूनतम ही नहीं मिला जिसे प्रजातंत्र कहते हैं तो आगे की क्या चाहना करें.यहाँ उम्मीद से दुगना सिर्फ उपभोक्तावादी बाज़ार की छलनाओं में मिलता है.
कविता ख़ास तेवरों के साथ थीं,मैं कहूँगा ज़रूरी तेवरों के साथ.
तुम्हारी कविताओं के तल्ख होते तेवर तिलमिला देते हैं...तुम "शल" के बारे में सही हो। मेरी भी जानकारी {अल्प} यही कहती है।
सोचता हूँ कि ये जो ब्लौग जो न होता तो हम कितने अनूठे कवियों से मिलने से वंचित रह जाते हैं।
सागर जी
सचमुच प्रजातंत्र का असल चेहरा दिख नहीं रहा है .जो दिख रहा है वह निराश करने वाला है .
"सॉरी बड़ी देर कर दी मैंने फिर आने मे..तब तक आपकी दूसरी भी आ गई...ऐसा आलस तो मुझे भी हो...:)
जनविरोधी...वो हर कोई है जो आवरण बनाता है..चाहे वो पहियों से ही क्यों ना बने...सच्ची मे मै कभी-कभी सोचता हूँ..!
"आखिरी ठौर..?" ऐसा है क्या...फिर मर्दों का भी ठौर कुछ इन्हीं स्टेशनों से गुजर के जाता है..उसे आखिरी भी होना होगा..स्टेशनों को घर मे तब्दील भी होना होगा...!
फुटपाथ..धुरी..दोनों सदियों से एक समानांतर दूरियों मे कितने खुश हैं..देखो ना...!
सरकार और षड्यंत्र..शांत रहिए..यह लोकतंत्र है..हम इसमे शरीक हैं..अपना हिस्सा याद रखिए..टैक्स कम लगेगा..
फिर-फिर क्यों जिंदा हो रहे हैं ये सिद्धांत औ' व्यवहार..मूंगफली का ये दाना कड़वा है..
मेरा दिमाग फिर गया है..अभी उस किन्नर को वोट कर आ रहा हूँ...!
आपकी कविता के बहाने सरक लिया मैंने स्याह सफ़ेद एक पुराने बरफ की चादर के बीचोबीच....
जी दिल से आभारी हूँ.....!!!"
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