मनतक*


मत लिखो अब प्रेम पर,
विरह पर,
सौंदर्य, प्रकृति पर

मत लिखो वीर रस की कवितायेँ
...वो सारे युग बीत गए

क्यों सोचते हो, महाकवियों के बारे में?
तुम्हारी कूव्वत,
उन जैसा लिखने की नहीं है.

एक खबर उठाओ,
उसका संपादन कर दो

हो गयी कविता!
औ' तुम कवि!

वह तुम पर गर्व करे, ना करे
तुम इतरा उठोगे

आज सभी कवि हैं
देखो कितने बिखरे पड़े हैं...

यह नए युग की कविता है
यहाँ खबरें ही कविता हैं...

औ' यह तुम्हारी बेहतरीन रचना है!!!
* तर्क

6 टिप्पणियाँ:

Ashish Khandelwal said...

वाकई बेहतरीन रचना..हैपी ब्लॉगिंग

अपूर्व said...

इन्सान की हदों, तर्कों, मज़बूरियों, चुनौतियों, अहं, जरूरतों और महत्वाकाक्षाओं जैसे विपरीत भावों की शाश्वत(?) रस्साकशी को highlight करती बेहतरीन रचना..आभार!!

गौतम राजऋषि said...

दिनों बाद आज मौका मिला है आपके पन्ने पर आने का...

वर्तमान का सच....कविता का सच...मुझे अपनी फैन की फ़ेहरिश्त में शामिल समझें

डॉ .अनुराग said...

ये तो सच ठेल दिया भाई.....कोरा सच ....

ओम आर्य said...

क्या कहे आप जो कहते है उसमे सिर्फ सच दिखतीहै सच के शिवाय कुछ नही.......एक यथार्थ वादी रचना.....बहुत बढिया!

कुश said...

ओहो तो बात यहाँ तक पहुच गयी..