चेतावनी


अभी, रात से डरो
इसमें कई चीत्कार दबे हैं...
दिन में होने वाली दुर्घटनाएं भुला दी जाती हैं...
वैसे भी,
तुम कई एक्सिडेंट लिए
मुसलसल चलने के आदि हो...
तुम्हारे पास 'आइस-पाइस' कहने का वक़्त नहीं होगा
हर मोड़ पर धोखा 'धप्पा' दे देगा

प्यार से मत देखो,
नयी नस्लों के बच्चों को
वो छनिक हैं...
तुम्हारे टेबल पर का कैलेंडर पलटेगा
औ' वो प्रोफेसनल बेरहम बन जायेंगे

तुम स्त्रियाँ, अचरे में;
यह जो सौगात लिए घुमती हो ना!
बेटा पास करे तो मत सोचना कि
सिल्क की साड़ी पहनूंगी

अपना तजुर्बा है
कॉटन की साडियां
...ज्यादा आंसू सोखते हैं

एम् ओ यू रोज़ तैयार है उनके लिए
जो हाथें घास काट रही हैं
कह दो उनसे सपने ना देखे
बचा कर रखे उन हाथों की सख्ती को
कुछ सालों में परखे जायेंगे वो

हाशिये पर के लोग हो, हँसिया धारदार रखो

मैं चेता रहा हूँ ;
फिलहाल, रात से डरो
इसमें कई...

5 टिप्पणियाँ:

अपूर्व said...

अपना तजुर्बा है
कॉटन की साडियां ज्यादा आंसू सोखते हैं.

लगता है इस ज़मीन ने भी कभी कॉटन की साड़ी ही पहनी होगी..
एक और बेहद यथार्थपरक कविता..वैसे हर सुरंग के उस पास रोशनी भी छुपी होती है कहीं..कभी उसे भी अपनी कलम के दायरे मे लाइये..

डॉ .अनुराग said...

निखरे हुए तो पहले से ही हो...रोज पोलिश ओर लग रही है....चक चका चक

ओम आर्य said...

SAAGAR BHAI......AAP BAHUT HI KHUBSOORATI SE YATHARTH KO WYAAN KARATE .....AAPKA ANDAJ BAHUT HI ANOKHA HAI .....AISE HI LIKHATE RAHE

कुश said...

अपना तजुर्बा है
कॉटन की साडियां
...ज्यादा आंसू सोखते हैं

क्या लिख बैठे यार.. बहुत खूब
वाकई चका चक है

Puja Upadhyay said...

अपनी तरफ के बचपन के कई शब्द फिर से देखने को मिले, धप्पा, आइस पाइस जैसे...पर नए अर्थों में. बेहद अच्छी और गहरी कविता है, कई मायनों को समेटे.