सीधे-सीधे कहाँ कभी
सामने आई तुम...
लेकिन वक़्त-ए-रुख़सत पर,
अप्रत्याशित रूप से
तुमने सामने आकर
दिया 'निर्णायक फैसला'
जाने कैसी दुश्मन थी तुम!
कभी हमारे बीच लड़ाई न हो सकी
प्यार रिसता रहा
और अपने समंदर का
जलस्तर घटता रहा...
इससे पहले कि मैं अपने सर पर के
धूप का गीलापन समझ पाता
तुमने
सजे-रचाए पैरों से
चौखट पर के 'अक्षत-कलश' की तरह मुझे
बड़ी कोमलता से
ठुकरा दिया
...और दहलीज़ लाँघ गयी
अवसर शुभ है...
गैर के
घर में 'गृहप्रवेश' का...
4 टिप्पणियाँ:
ये प्यार अपना कर ठुकराना........ और दहलीज़ लाँघ कर गैर के घर मे प्रवेश करना ......क्या कुछ नही कह गये तुम .....लेखक नहीं हो पर लिखते बहुत अच्छा हो .....आगे भी पढ़ने की तमन्ना रहेगी
इससे पहले कि मैं अपने सर पर के
धूप का गीलापन समझ पाता
तुमने
सजे-रचाए पैरों से
चौखट पर के 'अक्षत-कलश' की तरह मुझे
बड़ी कोमलता से
ठुकरा दिया
...और दहलीज़ लाँघ गयी
अवसर शुभ है...
गैर के
घर में 'गृहप्रवेश' का...
क्या लिखते हो यार .कमाल की बात कहते हो......एक अजीब से सेंस ऑफ़ ह्यूमर की झलक दिखती है......कैसे ?जैसे कोई लेखक पनप रहा हो भीतर ही भीतर...
ye bahut hi aachi rachna lagi. shayad ab wakai main aapk andar ka writer jaag raha hai.
keep it up.
kya khoob likha hai..........dard ke sagar mein sagar doob gaya hai.
Post a Comment