मां जलाकर आया है बारिश
बेआबरू होकर बरसे ही जा रहा है।
मुंह खोले गुस्साए बरस रहा पानी
टपाटप गिर रहा, झमाझम नहीं
अपनी लय से बेखबर, बरसने की अदा से जुदा
आज बारिश, बूंद-बूंद बरस जाने में बहुत पेशेवर है
मिट्टी के बांध बह जाएंगे
नदी की धाराएं फूट पड़ेंगी
घुटने भर पानी, फसल कुछ इंतज़ार में खड़ी होगी
जैसे छठ अध्र्य में सुहागिनें मन्नत के लिए
उजाड़ कच्चे गांव फिर कहीं बसने की जगह देखेंगे
आसमान का टैंकर खाली हो जाएगा
कौवे निर्जन प्रदेश की घास में अपनी चोंच उल्टा उल्टा कर पोछेंगे
लेकिन नहीं पड़ेगा फर्क पत्थर की पीठ पर
नहीं पड़ेगा फर्क पत्थर की पीठ पर
रेशा रेशा फूट रहा है
छिन्न छिन्न उड़ रही पानी की बारूद
कोई मूर्तिकार छेनी लिए पत्थर तराशता हो जैसे
और हर कोंच पर बारीक बुरादे उड़ते हों
कहां जा रही बारिश अपना मायका छोड़कर
धरती बस एक अवरोधक लगता है
चुकंदर की तरह अपना ही हृदय दोनों हथेली में लिए सरे बाज़ार
खुद को निचोड़ रहा
मां जलाकर आया है बारिश, बेरहम।
3 टिप्पणियाँ:
बहुत सुंदर
एक बार अवश्य देखें- तौलिया और रूमाल
बेहतरीन रचना..
Hello. And Bye.
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