हम करें दो सौवीं बार प्रेम
पहले को ध्यान में रख कर
आग सुलगाएँ, चूल्हा जलाएं, रोटियां पकाएं,
बच्चों को भूखा सुलाएं, डराएं
रोशनदान में पनाह लिए
कबूतर पर निशाना साधें
ढेले मारें, खून रिसायें,
एक टांग पर मजबूर करें.
पेड़ लगाएं, पत्ते खिलाएं, लहलहायें,
आग लगाएं
गालों पर चलते आंसू को तमाचा मार
रास्ता भटकाएँ
सांस उगायें, दफ़न करें,
बंजर भूमि पर नयी नस्ल तैयार करें
नेमत का मखौल उडाएं,
बाहें फैलाएं, बिठाएं श्वास नली में
बारूदी हवाएं.
शिद्दत के अफसानों को दुत्कार लगाएं,
बिस्तरें उठायें, किराये लगाएं
गिरवी रखें अंतिम पहर
सिरहाने रखें अस्तमा की दवाएं
शोकगीत पढ़ें, वक्त रहते मरें
खाल उतारें, धूप लगाएं
फिर उनका व्यापार करें
विनाश हो मेरा !
26 टिप्पणियाँ:
बहुत गहरा कटाक्ष!
यह आक्रोश क्यों भाई?
are baap re zabardast narazgi
kyaa ho gaya?
badhiyaa rachnaa
samndar mein ye ufaan kaisa..too gud :)
समझ नहीं आता कि इसके लेखक होने पर तुम्हें बधाई दूं...या तुम्हें जानने के कारण इस दर्द को समझूँ. लेखक के तौर पर ये अनुपम कृति है...और एक इंसान के रूप में दर्द में डूब कर लिखी हुयी. तुम सच कहते हो सागर कि तुम मर के लिखते हो...
गालों पर चलते आंसू को तमाचा मार
रास्ता भटकाएँ
कितने तमाचों के निशान वापस हरे कर गए सागर बाबू...आक्रोश है अगर, तो इस आक्रोश के सागर के नाम...आमीन!
वाकई विनाश हो तुम्हारा ......अबे कवि !!!!!!
kya baat hai . amen bhi nahi kah sakta.
satya
यकीनन कविता बहुत खूबसूरत है,कविता में इक मिश्रित सा लय ताल है.
खासकर ये-
रोशनदान में पनाह लिए
कबूतर पर निशाना साधें.
और ये-
गालों पर चलते आंसू को तमाचा मार
रास्ता भटकाएँ पंकतिया विशेष रूप से अच्छी लगी
अब इक बिन मांगे सुझाव-
आखरी लाइन को कविता का title बना दे
और आखरी लाइन..आमीन..:)
@ डिम्पल जी,
शुक्रिया, पर सुझाव निरस्त की जाती है क्योंकि सभी आमीन पर ही अटक रहे हैं.
कवि..विकास हो तेरा!!
कविता निःसंदेह प्रभावी है..पूरी कविता से गुजरते हुए कई बिंब नुकीले काँटों की तरह नजर के पाँवों मे गड़ जाते हैं..दर्द को एक नाम मिलता है तो ज़ख्म और रिसते है..कविता के आत्महंता मूलभाव जहाँ एक साहित्य क्षुधित जिह्वा को तृप्त करते से लगते हैं..तो वहीं आशंकित भी करते हैं..रोशनदान मे पनाह लिये कबूतर पर निशाना साधता कवि परोक्ष रूप से खुद से बदला लेने की कोशिश करता दिखता है...कवि इतना गहरे घुस कर रचता है कि कहीं-कहीं पर पाँव उखड़ते से लगते हैं..और अंत से कुछ पहले कविता कुछ भटकती सी लगती है..मगर अंत मे आपने फिर उसे साध लिया है..हो सकता है यह मेरी अपनी नजर का कुसूर हो..
बधाई!!
रोज़ ऑफिस जायें, आयें
खाना पकायें, सो जायें
फिर ऑफिस जायें..
लिखें प्रेम कवितायें,
और ऑफिस की सारी प्रेम गॉसिपों
में प्रेम का मखौल बनायें
जियें ज़िन्दगी, ये न जानते हुये
कि जीते क्यूँ हैं..
और मर जायें एक दिन
कई सारे सवाल लिये...
साल में एक दिन झन्डे खरीडें
एफ़-एम पर फ़रमाइश रखें देशभक्ति की..
बाकी दिनों, लगाते रहें चूना
बोतें रहें बारूद..
हम सबका विनाश हो... (तुम अकेले ही नहीं हे कवि)
पूरा नहीं लेकिन थोडा-थोडा अपूर्व से सहमत हूँ, अगर कवि भी पूरी शिद्दत से दुनिया के चलन और मांग में रम गया.....तो संवेदनशीलता लिखावट में ज़रूर नज़र आ सकती है लेकिन व्यक्तित्व में नहीं.... मेरे हिसाब से ये दोगलापन हुआ.....राइटिंग और पेर्सोनालिटी ट्रांसपरेंट ना सही ट्रांस्लुसेंट तो हो .....चलते- चलते इतना कहना चाहेंगे हम ---
"हम है आज के युवा
हमहें वक़्त बदलना आता है,
भ्रष्टाचार, आतंकवाद और कुर्सीवाद से निपटना आता है
देश को अपनी जागीर समझाने वालो,
संभाल जाओ,
वरना हमको व्यवस्था तंत्र बदलना आता है "
bahut hi khoob likha hai...
very nice....
Meri Nayi Kavita aapke Comments ka intzar Kar Rahi hai.....
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हाय सागर, तुम इतना अच्छा कैसे लिख लेते हो?
@ पंकज, तुम इतना अच्छा कैसे लिख गए?
वाकई विनाश को हम सबका....
क्या ख़ूब लिख गये हैं...
पुरानी ब्लॉग थीम ज़्यादा जंचती थी...ऐसा लगा...
बड़ा बमपटाख आक्रोश है।
आक्रोश बहुत है। गनीमत है कि इस तरह के आक्रोश कविताओं में ही रहते हैं। असल जिन्दगी में खराब से खराब हालत में विनाश से बचने की ही कोशिश रहती है।
कविता अच्छी है। लेकिन यार इत्ता विनाश करोगे आजादी के आसपास!
..विनाश हो मेरा !
...कविता में आग है....कविता में है तो जीवन भी राख नहीं हुआ है अभी. शेष हैं संभावनाएँ..दिखती है रोशनी की किरण.
...आक्रोश से उपजी इस बेहतरीन कविता के लिए बधाई.
shukriya :)
कविता अन्दर तक झकझोर गयी.अद्भुत.
kyaa baat hai!!..adbhut..
naisargik roop se kavi ho aap...aisaa khayaal hai mera..matlab..kisi definite uddeshya se nahi likhi gayi ye kavita ..bas upji hai naisargik roop se..adbhut!
कविता पढ़नी शुरू की तो, बीच में कई पलों तक ठिठका रहा "गालों पर चलते आंसू को तमाचा मार
रास्ता भटकाएँ" कवि के इस वक्तव्य पर। उफ़्फ़्फ़्फ़....तुमपे खूब जला-भुना कि ये मिस्रा मेरा क्यों नहीं है।
आक्रोश जैसा आक्रोश कोई...और प्रेम के बहाने भड़ास जैसी भड़ास कोई। कारवां गुजरने के बाद गुबार देखते रहने का नया जुमला "आमीन" के बहाने।
लगे रहो कवि...यूं ही हतप्रभ और भौंचक्का करते रहो हम पाठकों को!
कुछ बात है कि शब्द असर करते है आपकें
"गालों पर चलते आंसू को तमाचा मार
रास्ता भटकाएँ"
mere hisse men jitni dunia hai... le jao...dost..
ब्लॉग पर किताबों की तरह underline करने
की सुविधा नहीं होती...ये गलत बात है....सर
गालों पर चलते आंसू को तमाचा मार
रास्ता भटकाएँ...
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