कायदे से तो,
यह परिदों के घर लौटने का वक़्त था.
शनिवार की शाम थी,
पालथी मार कर, भूजा खाते हुए सिनेमा देखा जा सकता था.
कुछ विकल्प और भी थे मसलन
बीवी को रिझाने का वक़्त हो सकता था, तो,
माँ की शादी में क्या तमाशे हुए यह भी जानने की फुर्सत भी थी.
लेकिन, प्रेस 'बंद' होने वाला था
मतलब,
आज़ादी पर कोई चुप्पा जितना बड़ा ताला लगने वाला था.
किन्तु लोगों द्वारा,
चुप्पा बोलते वक़्त भंगिमाएं बदल-बदल जाती थी
चुप्पा बोलते वक़्त भंगिमाएं बदल-बदल जाती थी
मानो,
समंदर में मंथर चाल से चलते टायटेनिक में सवार हों
और जहाज के कप्तान ने इसके निश्चय ही डूब जाने की घोषणा कर दी हो
पर प्रेस 'बंद' होने वाला था
अब यही
दो अक्षर एक अनुस्वार वाला शब्द पहाड़ बन चले थे.
'बंद' की बात बच्चों की अनुपस्थिति में की जाती थी
बालिग़ सदस्यों को ताकीद की गयी थी कि
आसमान छूते कलियों की ,
मासूमियत का बगीचा ना उजड़े
लिहाज़ा, वे एहतियात बरत रहे थे.
अब तक सबने अपने पेट भरे थे
और जिनके नहीं भरे थे,
उन्होंने भी भूखे पेट सस्ती शराब पी कर भी
जीप चला अलसुबह खगडिया, मोकामा, पूर्णिया और बरौनी तक अखबार फैके थे.
मेन हाल्ट से चिलम फूंक कर मुसद्दीलाल भी सायकिल रेल कर
कच्चे पगडंडियों तक 'रोज़ बदलती दुनिया' की तस्वीर पहुंचता था.
उनमें ज़िद थी घर के हालत से पहले दुनिया बदलने की.
वे 'तत्कालीन साधारण मनुष्य' थे
लोग भी, उस एक टकिया अखबार के लिए पलक बिछाये रहते.
मोटरसायकिल छीनी और चेन लूटा जैसे ख़बरों पर उत्तेजित होते,
चील वाली नज़रों से अखबार पढ़ते
और सामान्य सी अशुद्धि पर भी संपादक को गरियाते.
और सामान्य सी अशुद्धि पर भी संपादक को गरियाते.
बहरहाल, यह दीवानगी का आलम था.
पर प्रेस तो अब बंद होने 'वाला' था
मतलब, इसके लिए मार्च, मांग, जुलूस, धरना,
आन्दोलन, अनशन, लाठी चार्ज की पर्याप्त संभावनाएं बची हुई थी.
सड़कों पर छूटे जूते, फटे हुए सर, गिरफ्तारियां और लोग
बताते हैं कि शहर में यह सब हुआ भी था.
बताते हैं कि शहर में यह सब हुआ भी था.
कुछ शहरी अच्छे जूते घर ले आये थे
पर उनके बच्चों के पांव उनमें बैठ नहीं पा रहे थे.
कोई काटने की शिकायत करता तो
कोई उसके महज़ 'अच्छे नस्ल' का होना बता कर घर में रखे हुए थे.
कोई उसके महज़ 'अच्छे नस्ल' का होना बता कर घर में रखे हुए थे.
दरअसल वे उन जूतों को संभालना या सहेजना नहीं जानते थे
हालांकि, 'बहुत पहले' उनके पूर्वजों को
'पुरुषोत्तम' की पादुका दसियों बरस सँभालने का अनुभव था
'पुरुषोत्तम' की पादुका दसियों बरस सँभालने का अनुभव था
पर जैसा कि मैंने कहा
यह 'बहुत पहले' की बात थी.
उधर, मुसद्दीलाल भी पंखे से झूल,
पूरी दुनिया पर गाढ़ा - पीला पेशाब कर गया था.
22 टिप्पणियाँ:
बाप रे क्या लिखा है ...भिगो भिगो कर मारा है, विचारों की raw शक्ति
'अच्छे नस्ल' ,पुरुषोत्तम' बंद होने 'वाला' ,
आपने सही कहा..
वो अखबार तो वास्तव में बंद हो चूका है
और खबर मर चुकी है
अब तो व्यवसाय जिन्दा है
जो सब कुछ मार कर हीं छोड़ेगा एक दिन..या उसके बाद भी न छोड़े...
पूरे दो महीने बाद आपकी रचना बधाई हो...
सुबह भास्कर में एन के सिंह का आर्टिकल पढकर विचार थोड़ा बदलने लगा था लेकिन आपकी रचना पढकर फिर मन में ख्याल आने लगा कि क्या मीडिया का रेगुलेशन होना चाहिए..
समकालीन विमर्शों की अनुगूंज इस कविता में साफ सुनी जा सकती है।
ऐसी कविता जिसे पढ़ते ही मुंह से अपने आप उफ़ निकल आता है…लिखते रहो मेरे भाई…इसी पैशन से…
sir jordar vapisi ki hai :)
ऐसा लगा जैसे किसी बाग़ से गुज़र गया हूँ । एक बाग़ जहाँ बहुत-से खुबसूरत फूलों के पेड़ तो अब भी मौजूद हैं मगर सारे फूल तोड़ लिये गये हों । अंधों के शहर में आईना बेचना बहुत हिम्मत का काम है । सच !
Is kavita par kya kahun,shabd kam pad jayenge.badhai
सच में सागर बाबू, लेखनी जब फुर्सत पाती है तभी ऐसा लिख पाती है...
"दो अक्षर एक अनुस्वार वाला शब्द पहाड़ बन चले थे."... अब इसके लिए लिखूँ भी तो क्या लिखूँ?
"उन्होंने भी भूखे पेट सस्ती शराब पी कर भी
जीप चला अलसुबह खगडिया, मोकामा, पूर्णिया और बरौनी तक अखबार फैके थे."
एक शब्द सीखा था, जबरदस्त...काम चलाइए उसी से..
दरअसल मुसद्दीलालो के मरने से न अखबार बंद होते न बिकने...अलबत्ता आजकल मुसद्दीलाल के नए संस्करण निकलने बंद हो गये है
चलिए आखिर आपकी लेखनी ने फुर्सत तो पाई लिखने की..:)
लेकिन, प्रेस 'बंद' होने वाला था
मतलब,
आज़ादी पर कोई चुप्पा जितना बड़ा ताला लगने वाला था.
किन्तु लोगों द्वारा,प्रेस की आज़ादी (आज़ादी की सीमाएं क्या है)और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता..विरोधों का ये समन्वय,सच्चाई का ये ठोस स्वरूप इतना खौफनाक और चुम्बकीय आकर्षण से भरा है जो हमे भीतर तक मथता और झिंझोड़ता है....
सकड़ों पर छूटे जूते,ये .सकड़ों क्या है?
"सकड़ों पर छूटे जूते "
सकड़ों नहीं सडको होगा संपादक साहब.. सामान्य सी अशुद्धिया हम जैसे सामान्य लोग करे तो ठीक है.. आप भी करने लगे तो फिर सम्पादक क्यों बनाया आपको.. इस दो टकिया अखबार की तीस दिन की कीमत एक मजदूर के दिन का मेहनताना होता है प्रभो.. प्रेस बंद हो जायेगी तो हमें रोटी भी हाथ में खानी पड़ेगी.. अभी तो अखबार पे रोटिया खा लेते है.. वैसे हमारा मोबाईल २४ घंटे खबरे बताता है.. टी वी भी है इंटरनेट भी.. प्रेस की मशीनों के अभी तो अच्छे दाम मिल भी जायेंगे.. बाद में लोहे के दाम ही जाना है..
सागर जानी.. बहुत अच्छा लिखे हो
शुक्रिया डिम्पल/ कुश,
हिज्जे सुधार लिए हैं, वो क्या है ना, कुछ काम प्रूफ रीडर के लिए भी छोड़ देना चाहिए
मार्मिक अंत है पर यही सत्य है।
एक अच्छी जानलेवा कविता एक लापता कवि के पुनरागमन की दुंदुभीघोष की तरह लगती है..कई दृश्य यथार्थ के इतने करीब के हैं..कि सोच की जीभ कसैली हो जाती है..मगर अपना समाज इन्ही कुछ अच्छी और ढेर सारी बुरी चीजों से मिल कर बनता है..जिसमे हमेशा कुछ मुसद्दीलालों के पैदा होने की गुंजाइश बनी रहती है..और उनके आमहत्या कर लेने की भी पर्याप्त संभावना और कारण उपलब्ध बने रहते हैं.... .हमेशा..
हतप्रभ करते शब्द...
झकझोरते...
बेहतरीन...
Heee bhai
aapne to hila ke rakh diya...
mujhe nahi ......mere dil ko.!
मुसद्दीलालो के बहाने कितना कुछ कहा है आपने वो भी बेहद ख़तरनाक अंदाज़ में .... आग उगल रहे है आप ... स्याही की जगह जैसे लहू से लिखी रचना ...
बस ऐसे ही तेवर होने चाहिये कविता में .. मैं भी यही कहूंगा ..लिखते रहो..।
बहुत ही जोरदार लिखते हैं सागर भाई. पी.डी. के एक बज से घूमता-घामता आया हूँ आपका प्रोफाइल, कविता और बहुत कुछ आपके बारे में पढ़ा.
मज़ा आ गया.
वैसे पहली बार आप से मिल रहा हूँ, पीडी की बदौलत.
"मदोन्मत्त आँखों" की बेबाक बयानी से इस खबरनवीस की मौत तक सफर, यक़ीन मानो आसान नहीं था। क्लासिक की दो डंडी सुलग चुकी इस दरम्यान....
पहले पैरे के बिम्बों ने जहाँ अपनापन सा फील कराया...वहीं दूसरी तरफ "दो अक्षर एक अनुस्वार वाला शब्द जो पहाड़" बन चले थे ने अजब ढ़ंग से उद्वेलित किया।
बड़े दिनों बाद तुम्हारी किसी कविता का डूब कर रस्वादन किया है।
खगड़िया और पूर्णिया की यादों ने कसक उठायी तो मुसद्दीलाल की सायकिल ने हूक....
"अच्छा लिखते हो" सुन-सुन कर ज्यादा कुप्पा होने की जरूरत नहीं, समझे?
बस एक सांस में पढ़ लिए..... का बोलीं हम, सारा रस्ता हम घूम के आयेल बानी. लेकिन बात वही है -- क्या बोलें
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