फफककर रो ही पड़ो अब इस बसंत में,
सबदे हुए कलेजे को ज़रा देर धूप लगा लो,
किसी कोंपल का खिलना देख लो,
या चुपचाप किसी पत्ते का दरख़्त से जुदा होना,
ख्याल ये रहे कि कोई आवाज़ न हो
किसी की नज़र न पड़े
एक फूल ही तोड़ लो सरसों का, इस मौसिम में
कारण जान लो कि क्यों
हर शाम आसमान के किनारे सोना पिघलता जाता है,
पल्लू का एक टुकड़ा दांत से दबा कर
भंसा कि ड्योढ़ी पर ही क्यों बैठी रहती है 'वो'
क्या स्वाद होता है उस पसीने का जो आंसुओं से मिल जाते हैं
अनुपात वहां कितना मायने रखता है ?
जिस वेग से बहती है नदी भादो में...
लबालब...
आंसू वैसे ही अब-डब रहता है न आखों में
बाँध दिल पर अगर नहीं होता है तो
क्यों साकार हो जाता है मंज़र
कुछ भी कर लो;
याद रखना पर कि
सरसों के फूल ज्यादा देर खिले नहीं रहते..
औ' फ़रवरी का महीना सबसे छोटा होता है...